Saturday, 7 May 2016

खुला ख़त

खुला ख़त
रागिनी,
पिछले कुछ दिनों से मेरा ख़त सुर्ख़ियों में है और इसलिए तुम्हारा ख़त भी सुर्ख़ियों में ही है. तुम्हे पता है रागिनी तुम्हारी याद मुझे तब आयी जब मेरा ख़त सुर्ख़ियों में आया. यूँ तो मेरा ख़त अगर अच्छी तरह से हर किसी तरह के सोंच रखने वाले किसी अच्छे इंसान के गोंद में जाती तो आज तुम्हे लिखना न पड़ता. परन्तु ये ख़त बहुत ही संकीर्ण मानसिकता वाले कुछ ही लोगों तक सीमित होकर रुक गयी.

रागिनी वह दिन याद है जब मैंने तुमसे मिलकर कहा था कि तुम पर कुछ लिखने का मन कर रहा है और लिखकर तुम्हे एक डायरी देना चाहता हूँ जब मैंने तुम्हे डायरी लिखने का साहस कर रहा था तो मुझे इतनी मुश्किल नहीं उठानी पडी थी जितनी की आज कर रहा हूँ. तुम्हारी डायरी जिसे मैंने कहा था वह तो फटा हुआ बस कागज था न उसमें कोई साज सज्जा था न ही कोई डायरी सा प्रतिबिम्ब उसके लिए मैंने इतनी मेहनत भी न की थी क्योंकि मेरे पास कहने के लिए बहुत कुछ था पर लिखने के लिए मेरे पास कुछ था ही नहीं. रागिनी वहां तो तुमसे कुछ रिश्तों की परिभाषाओं का भी जिक्र किया था.

मैंने जब तुम्हे पकड़ाया था वह पन्ना तो उसके पहले अपने पास एक कॉपी रख लिया था. वह प्रेम पत्र था किसी और के शब्दों में परन्तु जितना समझदार तुम लगे थे उतना समझदार शायद मुझे कहीं जाकर ढूँढने पर न मिले. तुमसे जो मुझे मेरे चिट्ठी का जवाब मिला था वह किसी और के लिए बेहद निराशाजनक था परन्तु मेरी बात जितना तुम अच्छे से समझ सकते थे उतना ही अच्छा मैं भी. मुझे तो बहुत ही अच्छा लगा था शायद मैं भी तुम्हारी जगह पर होता तो मैं भी ऐसे ही प्रतियुत्तर देने की कोशिश करता. तुमसे करीबी होने के बाद भी तुम्हारे साथ चला था जैसे हम एक दूसरे के साथ चलना चाहते थे. आज भी अगर चाहूँ तो तुम्हे इतने दिनों बाद तुमसे बात करके भी कुछ कह देता और तुम सुनने का इंतज़ार करती मेरी भावनाओं को पढ़ने की कोशिश करती. परन्तु इससे मेरे अनतर्मन की बात नहीं सामने आ पाती.

रागिनी तुमने तो सुना ही होगा कि महाभारत में कुंती को एक श्राप लगता है वह श्राप इसलिए कि कर्ण का परिचय उसने पहले न दिया था अपने अन्य भाईयों से. जब माँ कुंती को श्राप मिलता है तो बस इतना कि अब भविष्य में नारियां कुछ भी छुपा नहीं सकेंगी. शायद तुमने इस श्राप का मतलब भी स्पष्ट कर दिया था और मुझसे कुछ नहीं बताया जो मुझे जरुरत न थी और जरुरत की सारी बातें बताई. वाकई तुम इतने समझदार थे. परन्तु आज महाभारत के सन्देश भी उलटे पड़ने लगे है. आज तो सारी बातें एक दूसरे से बताकर भावनाओं का मज़ाक भी उड़ाया जाता है.

रागिनी तुमने भले ही मेरी डायरी के वे कागज फाड़ कर फेंक दिए हो, उन्हें जला दिए हो, शादी के बाद तुमने बता दिए हो उस चिट्ठी के बारे में उस रिश्ते के बारे में, पर तुमसे जैसी उम्मीद थी वैसे खरे उतरे थे तुमने कभी नहीं कहा ऐसा कुछ जो तुम न कर सकती थी. तुमने वही किया जो मुझे चाहिए था. तुमने मेरी अभिव्यक्ति पर संदेह नहीं उत्पन्न होने दिया था. तुमने मेरी जिज्ञासा को बढाया था तुमने मुझे मेरी मंजिल पकड़ा दी थी. तुमने मेरा हौसला बढाया था.

पता है रागिनी मैं कभी इंसान की भावनाओं के साथ नहीं खेलता शायद तुम्हे मेरी इसकी पहचान थी और मुझे तुम्हारी भी तुम्हारे लिए ही मैंने लिखा बहुत कुछ. और इस मुकाम पर पहुंचा था जहाँ से मैं किसी और को चिट्ठी लिखकर अपनी प्रतिभा का परिचय करा सकता था. अपने अहसास को उस तक पहुंचा सकता था. उसके लिए तुमने मेरे लिए एक रास्ता हमेशा खुला छोड़ रखा था.

रागिनी तुम्हे मेरी पहचान थी और तभी तुमने जो कुछ दिया बस उतना ही तक मेरा अभिप्राय था. जब मैं तुम्हे देखता हूँ तो तुम्हारे लिए पिछली बार की तरह ही अच्छे शब्द आते है. मेरे दिल में तुम्हारे लिए वैसे ही जगह है जैसा हमेशा से रहा है. तुम कुछ करते हो ऐसा, या ऐसा किया है जिससे मुझे कभी पीड़ा हुयी तो मैं ही तुम्हे नहीं मेरे मन की वो अनोखी ताकत भी एक बार मुझसे दबाव डालकर तुम्हे माफ़ कर देती है.

रागिनी ये पत्र मैं तुम्हे ही नहीं लिख रहा हूँ उस समाज के लिए लिख रहा हूँ जिसने मेरी नींद छीन ली है जिसने मेरे सुर्ख़ियों वाले पत्र का गलत मतलब निकाला है. उस समाज को जिसने मेरी भावनाओं का कद्र  ही नहीं किया. रागिनी मैंने शायद इसलिए अब तक बहुत सारे पत्र व्यवहार अपने परिवार में भी किये. अब मुझे इस समाज के कुछ गिने चुने लोगों ने ही मुझमें और तुममे बहुत दूरियाँ बढ़ा दी है. मेरे सोंच को बदलने का प्रयास किया है. तुमने मुझे ताकत दिया था और जो हौंसले कि तुम्हे अपने मंजिल तक जाना है वो कुछ लोगों ने मेरा मन भटकाने की कोशिश कर रहे है. अगर आज तुम्हे वो पत्र रूपी डायरी न लिखी होती तो मैं अपने मकसद से शायद हार जाता.

जब मैं कहता हूँ समाज तो मैं  खुद भी उसमें आ जाता हूँ कभी मेरी अभियक्ति पर सवाल उठा कर उन्होंने मुझे कोसा तो इसका मतलब अपने आपको भी कोसा क्या मैं लोगों को बदल सकता हूँ जी बिलकुल नहीं परन्तु इतना जरुर जानता हूँ कि मुझमें और तुम्हारे बीच के जिस अंतर की बात वो समाज करता है यह वही आजादी के पहले वाला चेहरा है कैसे कैसे लोग है यही जो आधुनिकता की दुहाई देते है यही जो समानता की बात करते है यही वो जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते है, वही अन्दर से इतने गिरे हुए है कि ये प्रेमी और प्रेमिका को जलाने में खाप पंचायत की मदद करते है. ये तो उस समाज का आईना है जहाँ केवल समाज की बात होती है. खैर बात तब समझ नहीं आती जब रागिनी तुम्हारी जगह लिए कोई और ही उसके उन मकसद में सहभागी बन जाता है. यह रागिनी उसकी भी मजबूरी हो सकती है. परन्तु तुम्हारी मजबूरी क्यों नहीं बनी.

रागिनी जब भी में किसी चिंता में पड़ता हूँ तो मुझे प्रकृति से मेरे पिताजी के समान ही मुझे भी उस चिंता को भूलने के लिए गहरी नींद मिली हुयी है. और तुमसे कुछ कहने के लिए ये उचित स्थान. इस स्थान पर हर कोई है वह धुंधला समाज का आईना, उस परिपक्व समाज का आईना. चाहता तो मैं तुम्हे व्यक्तिगत डायरी न लिखता परन्तु उसकी भी एक जरुरत थी. जिसको तुमने समझा और इस लिए आज ये खुली चिट्ठी तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ. रागिनी तुम्हे ये पत्र लिखकर शायद अब मुझे गहरी नींद की आवश्यकता न पड़े. शायद मैं अपने हौसले फिर बाँध सकूँ इसलिए अगर अभी कहता हूँ कुछ तो बस इतना ही जैसे मैं ध्यान रखता हूँ तुम्हारा और तुम भी... वैसे ही ये सिलसिला चलता रहे. जीवन की यही कहानी याद रहती है. शायद समाज तक सन्देश पहुँचाने का यही एक आधार बन सके.
-प्रभात  




Friday, 6 May 2016

डर तुम्हारी स्मृतियाँ खोने का है

ये दुनिया अगर कह भी दे कुछ
तो मालूम नहीं वो कितना सच है  
जहाँ देखते है दरिया को बहते हुए
वो दरिया नहीं वहां बस रेत है
ख्याल आये तो कुछ लिख दूँ तुम्हे
कैसे! जब सब यहाँ खुला पत्र है
यहाँ विचलित करता है समाज मुझे
क्योंकि तुम्हारी वजह ही सब कुछ है
ज़माने है बिगड़े शक होता है मुझपर
गली में तुम्हारे ही कई चोर है  
अभी बिगड़ी है मेरी जो कुछ हालत
कसूर दुनिया का और तुम्हारा भी है
तुमने तो कुछ जुटा ली स्मर्तियाँ पर
डर तुम्हारी स्मृतियाँ खोने का है   
ये दुनिया अगर कहती है कुछ तो
मालूम नहीं उसका भी कोई हित है  

-प्रभात    
   


Wednesday, 4 May 2016

अब तुम्ही बताओ तुम क्यों चुप रही

तुम्हारी इबादत है जो मुझसे अब तक हुयी
अब तुम्ही बताओ तुम क्यों चुप रही
मैं जमीं, सितारें और तुम आसमां हो गयी
इन चुभे काटों को आकर भिगों गयी
मेरे आईनें में तुम सामने ऐसे नज़र आयी
मेरी आँखे भी तुम्हें छूकर चली आयी
तुम्हें ढूढ़ते-ढूंढ़ते शबनम भी शरमा गयी
नयनों से निकलकर पत्तों पर छा गयी
हमसे जो अब तक तुमसे कुछ बातें हुयी
उनकी यादों में मेरी गहरी साँसे हुयी
सिलसिला यूँ ही इबादत की चलती गयी
तो फिर क्यों न कभी मुलाकातें हुयी
तुम्हारे नाम पर राते और करवटें लेती रही
रात कटती गयी और सुबह होती रही    
तुम्हारी वजह फिर दिल नाम मेरा कह गयी
तूफ़ानों से रुकी साँसे भी चलती गयी     
मैं मीरा और तुम कृष्ण सा माकूल बन गयी
मेरे ह्रदय में आकर अब तुम बस गयी

-प्रभात 

Sunday, 1 May 2016

दिन रात होना प्रकृति की परंपरा है

जाने कितने दिनों के बाद गली में आज चाँद निकला....
जी हाँ इससे पहले बड़े नाज़ुक दौर से गुज़र रहे थे हम...
ये मेरे दोनों स्टेटस के बीच के दिनों में जब मैं चुप्पी साधे था तो लोगों ने क्या-क्या अर्थ नहीं लगाये....
आज से पांच साल पहले की बात है मैं एक स्टेटस लगाये दिखता था कि
दिन रात होना प्रकृति की परंपरा है
सुख दुःख सहना आना चाहिए बिना इसके कहा सफलता है......
यूँ तो बात सीधी नहीं है जो एक पन्ने में समेट दी जाए, सैकड़ों पेज की किताब इन दोनों स्टेटस के बीच की बनेगी शुरुआत हो चुकी है एक पेज लिखा था उन दिनों अपने ब्लॉग पर अब धीरे-धीरे इसे अपने अंतिम लक्ष्य तक पहुंचाऊंगा. दोस्तों उथल पुथल की इस ज़िन्दगी में न जाने कितने उतार चढाव आते है. हम कभी खुश होते है तो दूसरा उसी समय दुखी. जिन्दगी में न जाने कितने साथ छूटते है तो उसी समय कुछ साथ जुड़ते भी है. कुछ बड़े काम होते है तो कुछ काम बेकार भी चले जाते है. पिछले दिनों मतलब इन दोनों स्टेटस के बीच में मैंने ही इन्ही विषम परिस्थितियों में कभी शताब्दी से सफ़र किया तो कभी हवाई जहाज से और कभी तो बाथरूम की जगह खड़े होकर ट्रेन की जनरल बोगी में. न जाने कितने लोगों से मुलाकातें हुयी. न जाने कितने लोगों ने साथ छोड़ा. और बहुत से लोगों ने मुझे खाली समझा. कुछ ने पागल तो कुछ ने मुझे रोते हुए देखा. हँसते हुए देखकर मैं अपना सेल्फी लेने की कोशिश करता तो वो सामने आ जाते और मेरी फोटो का आईना ही बदल देते उनकी फोटो ज्यादा खुशदिल वाली नज़र आती. इसी बीच मैंने कवितायेँ जो भी लिखी वो इन सबके गवाह बने. मैंने अपने व्यक्तिगत पीड़ा जो लिखी वो आपसे छुपी रहेगी तब तक जब तक मेरे हर दृश्य के गवाह/ पात्रों का अंत नहीं हो जाता. जो कहानियां सच/ वास्तविक लिखी जाती है उनको लिखने में बहुत दिक्कतें आती है...इसलिए अध्याय अधूरा पड़ा रहता है वर्षों तक कई बार अपने पूरे जीवन काल तक. ज़िन्दगी के वे दिन जिसे हम सोंचते है न आये अगर वही आता है तो बहुत साल पीछे छोड़ जाता है हमें भी और दूसरों की तुलना में केवल. हम मंजिल की तलाश में दूर भी चले जाते है. परन्तु मैं हमेशा किसी घटना के अंजाम का उसके सकारात्मक/ नकारात्मक नतीजों तक हमेशा समय से पहले ही पहुँच जाता हूँ, इसलिए अक्सर मुझे किसी भी भयावह स्थिति से लड़ने में कोई दिक्कत नहीं आती है. दोस्तों व् बड़ों आदरणीय मुझे जीवन में कुछ उपहार मिले है प्रकृति से वह भी शुरू से उसमें से एक उपहार आप भी हो. आपका तहे दिल से शुक्रिया
साभार
-प्रभात