Tuesday 25 December 2012

दिल्ली से बनारस


यह जो प्रथा है- नमस्कार कहने की, इसी को स्वीकार करते हुए मै आप तक पहुँच गया हूँ- इस ब्लॉग और फेसबुक के  माध्यम से। नमस्कार ही यहाँ क्यों? इसलिए क्योंकि यहाँ सुबह है या शाम यह पता लगाना व्यावहारिक  तौर पर मेरे लिए असंभव प्रतीत होता है। वर्ष 2012 का मेरे छोटे और बेहद महत्त्वपूर्ण सफ़र की शुरुआत और अब समाप्ति भी मेरे रेल के सफ़र से हो रही है। ऐसा लगता है अभी भी मै भारतीय रेल शिवगंगा के एक डिब्बे में कैद हूँ, इस धुंध और ठंडी के सफ़र का आनंद केवल मै ही ले रहा हूँ। यह मेरा अभी के लिए अंतिम अवसर है जब आपसे मै  इन्टरनेट के माध्यम से  रहा हूँ।
मै 24 दिसंबर को मेरी यात्रा शुरू होनी थी मेरा यह दिन पूरी आजादी के साथ बीता।दिल्ली के कुछ बीते दिनों को और बिताये स्थानों को यहाँ मिले कीमती लोगों के साथ मिलकर मेरा यह दिन यादों से पूरी तरह सराबोर रहा। मेरी ट्रेन 7.00  बजे सायं को प्रस्थान करनी थी दिल्ली से बनारस के लिए। स्टेशन पर पहुँचने पर पता चला। ट्रेन अपने निर्धारित समय से 14 घंटे देरी से चल रही है, असुविधा के लिए खेद है। भारतीय रेल की मंगल शुभकामनाओं और हमारे दोस्तों के शुभकामनाये। ट्रेन अब इतनी देर को यहाँ से चलनी थी की मै इंतजार नहीं कर सकता था। संयोग था की मुझे मेरे दोस्त की मदद से एक जगह  के लिए मिल गयी, जामा मस्जिद के पास थोडा वक्त बिता मैं स्टेशन दुबारा 11.00 बजे रात्रि पंहुचा अब ट्रेन के चलने का समय 3.30 बजे अगले दिन सुबह कर दिया गया था। मेरा लगभग 5 घंटे फिर इंतजार में ही बीता। यह एक अच्छा वक्त था जब अब ट्रेन लेट नहीं हुई नहीं तो इसका रद होना तय था।  
दिल्ली स्टेशन से ट्रेन अब सुबह 5 बजे चली, मंद बैलगाड़ी के चाल से, मानो ऐसा लग रहा हो कि रेल को ठण्ड ने अपने अंकुश में ले लिया हो। कुछ न करते हुए मै अपने कीमती समय को कुछ लिखने और पढने में ही बिता सकता था। 

"एक मूर्ती साथ नहीं, फिर क्या यहाँ पत्थर जो पूजे जाते हैं,
मूक धरती है तो क्या यहाँ सब ईश से जाने जाते हैं।
भौतिक बातों में नहीं तो क्या
                  यहाँ सब स्वप्नों में जब मिल जाते हैं,
अधिशेष मिलन की हर यादें बस, जो यादों में जाने जाते हैं।"


दोस्तों, मेरा यह शायद अंतिम नहीं बस अभी के लिए अंतिम अवसर होगा जो यहाँ (ब्लॉग पर) आपसे मिल रहा हूँ, कुछ दिनों के लिए मेरी तरफ से विदा।
जरूर मिलेंगे लेकिन कब यह समय बताएगा, खैर आप मुझे मोबाइल से जरूर याद कर सकते है, यहाँ न मिल पाने के लिए मुझे खेद है। 


Sunday 16 December 2012

तभी तो मैं कभी-कभी एक उलझी सी पहेली को कुछ पंक्तियों में दुबारा उलझा देता हूँ

       किसी पत्थर से मूर्ति बनाना तो केवल एक कला ही है, जिसको हर एक व्यक्ति  उसी प्रकार से करता है जैसे किसी सुन्दर कागज पर लिखे गए सुन्दरता के लेख को दुबारा गढ़ कर किसी दीवार पर कलेंडर के रूप में परिभाषित करना। यदि उस पत्थर नामक शक्ति को इस संसार में बनाना पड़े तो यहाँ कला अपने आप में किसी प्रकृति का रूप ले लेती है और यह कहने में हम भलाई समझते है की वह तो वही भगवान् है जिन्हें हमने पत्थरों को गढ़कर परिभाषित किया, और यह स्वतः ही होता है, जब मैं हार जाता हूँ किसी कला से, तो मैं पत्थर ढूढना आरम्भ कर देता हूँ, और आप इसे कोई मर्म कहें या कोई शक्ति और अगर आप इसमें भी विश्वास नहीं करते तो आप केवल अपने मूढ़ता पर यकीं कर यह बात आत्मसात कर सकते है की वह पत्थर धरती माता के कोमल सतह से हमारे पैरों के द्वारा हमारी आँखों के सामने दिखता हुआ प्रतीत होता है। 
       जब लेखन शैली में कठिनता या यह हमारी दिव्य शक्ति यह बात मानने की ओर रूख करे, कि लेखक के बातों में मूढ़ता के साथ -साथ  भटकाव है तो आप निश्चित रूप से यह समझ जाये कि वह अपने आपको बेवकूफ बना रहा है, क्योंकि आप जैसे विद्वान पाठक हमारे लेखन शैली पर यकीं कर हमारे  द्वारा बनाये हुए पत्थरों के बनने की संकल्पना को मानने से दूर आप उस विचार तक पहुचने में रेल की जगह अपने पैरों का इस्तेमाल करने लग जायेंगे।
       अभी इतनी रात को हम सुबह  मान ले तो यह अच्छा होगा क्योंकि रात तो सोने वालों के लिए होती है और हम तो निशाचरों की भांति जग रहे है, खैर अब आप हमारे साथ एक ऐसी दुनिया में चलें जहाँ केवल और केवल आप होते है, अगर हम आपको ऐसी जगह ले चल पाने में सफल हो गए तो मैं समझ जाऊंगा मेरी मंजिल जो केवल अपनी है वह आपसे हमेशा सहयोग प्राप्त करती है।
       कई बार एक साथ जब हजारों बल काम करते है तो हम केवल एक काम करते है वास्तव में यह बल कुल मिलकर 3-4 ही होती हुई प्रतीत होती है। यूँ तो हर काम की वजह, हर राग की वजह एक कारण होता है और हर एक राग का एक प्रभाव होता है, जिसे हम अपनी खुशियों में मशरूफ करने के लिए अपने एक अलग धुन का ताबड़तोड़ इस्तेमाल कर लेते हैं। हर बार एक परिस्थिति जाती है जब राग बंद से हो जाते है अर्थात सोच के दरवाजे बाद में खुलते है लेकिन उस समय हम कुछ कहने की स्थिति में नहीं होते, इसका मतलब यह नहीं हो सकता की हम किसी गलत जगह का इस्तेमाल कर अपनी कुर्सी/छवि को गिरा रहे है। जब मुझे यह लगता है तो मैं चुप सा हो जाता हूँ और अपनी गलतियों को अस्वीकार करते हुए भी स्वीकार लेता हूँ, यह महज एक संयोग होता है, जब मैं कुछ बटन का इस्तेमाल कर आधी अधूरी कल्पनाओं(जिसे मैनें पत्थर की संज्ञा दी है ) को आपके गले लगा रहा होता हूँ। मैं जब अपनी बातों को दिखने वाली सुन्दर मूरत की तरह नहीं रख पाता, तो यह मेरे विचारों के अधूरे स्वप्न नहीं होते, ये लेखन शैली के दोष नहीं होते और ही ये आप की असक्षमता होती है, यह केवल एक बोध/अनुभव स्वरुप होता है जिसे केवल मैं ही अनुभव कर पाता हूँ, मैं ही इससे आनंद ले सकता हूँ और केवल यह मेरे लिए ही होती है, मै कितना भी चाह लूँ परन्तु आपके समक्ष गढ़ी हुई पत्थर की सुन्दर मूरत की तरह नहीं रख पाउँगा।
       तभी तो मैं कभी-कभी एक उलझी सी पहेली को कुछ पंक्तियों में दुबारा उलझा देता हूँ-

तुम्हे बताने में सच्चाईयां बदल सी जाती हैं
तुम्हारे देखने से मेरी नजर झुक सी जाती है,
ख्याल आने पर एक पहेली बन सी जाती है,
तो वह पहेली समझ आती है, ही तुम,,,,,,,,,,,,

       जल्द ही आपसे आगे मुलाकात किसी उचित उद्देश्य के साथ उचित समय में होगी, इसी आशा के साथ तब तक के लिए विदा