Monday 14 November 2016

क्या तुम भी वही देख रहे?



-गूगल से साभार 
क्या तुम भी वही देख रहे? 
जो मैं देख रहा हूँ..

लम्बी कतार में खड़ा
रात भर जगता आदमी,
उसके घर में आटे, दाल का
खाली डिब्बा देख रहा हूँ...
क्या तुम भी...?
जो मैं देख रहा हूँ।

पत्नी के डोलची का
पुराना डंडा लगा ढक्कन
अंदर छुपा 500 का नोट
निकलता देख रहा हूँ..
क्या तुम भी...?
जो मैं देख रहा हूँ।

बेटी के शादी का मूहर्त
और पिता के बैंक के चक्कर
में भुना खाली 2000 रूपये
मिलता देख रहा हूँ..
क्या तुम भी...?
जो मैं देख रहा हूँ।

लाश उठाये पिता की
कफ़न के लिए बेटे की
100 रूपये की तड़प में
विवश चेहरा देख रहा हूँ...
क्या तुम भी...?
जो मैं देख रहा हूँ।

छोटी बच्ची की जिद
टॉफी पाने के लिए 
रोती हुई रात भर प्यासी
अन्धेरे में जगता देख रहा हूँ..
क्या तुम भी...?
जो मैं देख रहा हूँ।

कई कार्ड लिए हाथों में
ए टी एम की ओर फिरते
बूढ़े, बच्चे, नौजवान 
सबको हताश देख रहा हूँ....
क्या तुम भी...?
जो मैं देख रहा हूँ।

रातों रात नमक लुटा है
हजार दिया, 800 मिला है
ढाई लाख ब्लैक मनी के बदले
1 लाख एक्सचेंज देख रहा हूँ
क्या तुम भी...?
जो मैं देख रहा हूँ।
-प्रभात




Thursday 3 November 2016

एक पत्रकार के साथ पीरा बैल और रोती गाय

नमस्कार पीरा जी और रोती जी। मैं प्रभात आपके साथ अगले 1 घंटे के लिए हूँ। आप दोनों का हमारे खेत के मचान के पास स्वागत है।
पीरा और रोती: जी प्रभात जी आपको भी नमस्कार। ; पूँछ हिलाते हुए और जीभ बाहर निकालकर नाक की और ले जाते हुए अम्मा!
प्रभात: ये अम्मा क्यों?
रोती जी: ये अम्मी की याद में अचानक ही निकल गया । मैं जब छोटी थी तो मुझे मेरे अम्मी से अलग कर दिया गया। मैं कसाई के हाथों में चली गयी थी। बड़ी मुश्किल से भाग गई एक दिन जब मुझे घुटे से जमके बाँधा गया था तो कुत्ता दोस्त ने रस्सी काट दिया और छूट के भाग गई थी, तब भी अम्मी का पता नहीं चल पाया।
प्रभात: अच्छा रोती जी आपके दोस्त पीरा जी आपको कब और कैसे मिले।
रोती जी: जब हौदी में अपने मालिक के यहाँ संगहा/भूसा खा रहा था, मेरी बूढ़ी अम्मी भी साथ में खाना खा रही थी वो दूध देती थी तो उन्हें मालिक ने आँगन में बाँधा था। और मैं जवान थी परंतु दूध नहीं देती थी बाहर बाँध रखा था। वही पीरा जी आते थे और मेरे साथ कुछ समय बिता लेते थे। जब तक पीरा जी के लिए सोंचती क़ि रूक जाए तब तक मालिक डंडा लेकर आते और पीरा जी को तब तक मारते जब तक पीरा जैसे सांड/ बैलों के संमूह में वह नहीं भाग जाता।
प्रभात: अच्छा पीरा जी आपसे एक सवाल। आप छुट्टा कब से घूमते है?
पीरा जी: मैं ये नहीं जानता पर जब से होंस संभाला, तब से ही मुझे हमारे मालिक ने नाक में नाथकर, मेरे शरीर पर कई जगह दागकर घर निकाला कर दिया गया था, क्योंकि मैं उनके किसी काम का था ही नहीं, नसबंदी होता इससे पहले ही घर परिवार छोड़कर रफूचक्कर हो गया। बाद में हम समूह में चलने लगे, पहले खेतों की ओर गए, मारे गए। भाले से अधमरा हो गया तब जाकर फुटपाथ पर शहर में घूमने आ गया। इसलिए शहर में आप से भी आज ही मुलाकात हो सकी।
प्रभात: डकारते हुए आपके साथ और जो लोग है वो दूर क्यों खड़े है?
पीरा जी: मेरे साथी दल में सभी मेरा स्वागत करने के लिए 1/2 किलोमीटर दूर खड़े है वो बता रहे है कि हम सब साथ है।
प्रभात: आप लोग क्या खाते है और कैसे दिन बीतता है?
रोती जी: हम सब पानी की खोज में बहुत दूर दूर तक चलते जाते है शहर में नाले का पानी मिल पाता है। खाने के लिए सड़ी गली खाने जैसा कुछ भी जो मिलता है वही निगलना पड़ता है। कभी- कभी प्लास्टिक भी खा लेते है।
पीरा जी: पागुल करते हुए, हाँ में हाँ मिलाते हुए। 
प्रभात: आपको खूंटे में बंधा हुआ अच्छा लगता है या छुट्टा!रोती जी: जी मुझे खूंटे में बंधा हुआ अच्छा लगता है कम से कम मालिक दूध के बहाने मुझे खिलाता पिलाता तो रहता है। यहाँ तो छुट्टा हूँ पर घूमने और खाने की स्वतंत्रता कहाँ?
पीरा जी: बहुत चोट खाना पड़ता है, जिधर जिस किसी के दरवाजे पर जाता हूँ वही दुत्कार दिया जाता हूँ। डंडे हो या भाले सब सह्वे पड़ते है। भागता तो रहता हूँ। मालिक तो मुझे खूंटे से अलग बचपन में ही कर देता है। खूंटे ही क्यों पूरे घर से अलग। घर ही क्यों पूरे परिवार से अलग।
प्रभात: तो अब आप लोग कहाँ जाने वाले है आप थके होंगे रिफ्रेशमेंट में आप लोग क्या लेना चाहेंगे।
पीरा और रोती जी दोनों एक साथ सिर ऊपर नीचे करते हुए, हंसमुख चेहरे से पत्रकार के हांथों को चूमने लगते है। मानों अब वे कह रहे हो मेरी पीड़ा को समझने और बात करने वाला ही मेरे रिफ्रेश होने के लिए काफी है। फिर भी आज जब उन्हें धुयिहर के साथ और खलिहान में हरे चारे के सामने बैठे मैंने देखा तो लगा शायद वो अपने पिछले दिनों को याद कर रहे है।
मैं उन्हें इस तरह साथ बैठा देखकर थोड़ा मुस्कुराता हूँ और दोनों हाथ जोड़कर शुक्रिया भी अदा करता हूँ।
-प्रभात



संघर्ष कब? क्यों? कैसे? ......(1)

गीता उपदेश आपने पढ़ा होगा, यह अर्जुन को भगवान् कृष्ण द्वारा दिया गया उपदेश है।
मैं कोई उपदेश नहीं देना चाहता पर संघर्ष के उन बिंदुओं को जरूर शामिल कर आपके लिए लाया हूँ जहाँ और जब मेरा उनसे सामना हुआ है। हर किसी के मन में जिस प्रकार से कुछ कहने की ललक होती है, कुछ समझने की शक्ति होती है उसी प्रकार से मेरे अंदर भी यह शक्ति विद्दमान है।
आज की जिंदगी में सभी कुछ न कुछ बनना चाहते है। जिसकी जैसी शक्ति होती है उसी प्रकार से वह अपने आप से उम्मीद करके आगे बढ़ते है। कुछ कामयाब हो जाते है और कुछ सतत परिश्रम से उस लक्ष्य को हासिल करने में भी नाकाम हो जाते है। जिलाधिकारी बनने की जिज्ञासा भारत वर्ष में आज भी उसी प्रकार से विद्दमान है जैसे पहले आजादी के बाद से ही देखी गयी थी। इस प्रकार के संघर्ष में हम जैसे लोग दिल्ली में बनवासी बने घूमते रहते है। हर कोई पॉवर और पैसे के लिए संघर्ष करता प्रतीत होता है। संघर्ष की उच्च स्थित में विमुखता, अपराधीकरण, असामाजिक होना आम बात है। बेरोजगारी की हालात में लोग क्या से क्या बन जाते है कुछ नहीं तो एक परिवार की हालत राजा से रंक की तरह हो जाती है और जो रंक होते है वो रंक से भी दयनीय स्थिति में पहुँच जाते है। हां कुछ सफल हो जाते है उनके बारे में कल्पना करने वाले लोग जलन और पागल से भी हुए जाते है, कुछ अपने और अपने लोगों को कोसते है, उलाहना देते है और उपदेश भी। लेकिन सवाल ये है कि इस संघर्ष में जो उन्हें सफल मानते है वे क्या वास्तव में सफल है? जी नहीं सफलता के जिस मायने पर आप जीते है वह जीने के लिए ठीक है पर खुद की संतुष्टि के लिए कतई नहीं।
"कुछ बनने से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण एक अच्छा इंसान बनने में है।"
जिलाधिकारी या कोई भी अधिकारी बनना आसान भी है मगर अच्छा इंसान वह होगा या नहीं यह कहना मुश्किल है। यह अपने आप में अलग विचार का विषय है कि अच्छा इंसान किसे कहा जाता है।
सफलता मिल जाने पर जो हालात होते है उसे हम खुशियां कह देते है लेकिन क्या यह खुशिया सबको मिल पाती है? जरूर नहीं। फिर इस खुशियों से किन लोगों के तालुकात होते है निश्चित रूप से केवल उसी की खुशियाँ निहित होती है। परंतु मिठाईयां हम अगर सबको खिलाते है तो केवल यह मान लिया जाता है कि बहुत सारे लोग तक यह खुशियां पहुँच गयी है। लेकिन ऐसा होता नहीं है। भिखारी को प्रसाद दे देते है तो उसे पता नहीं होता कि वह किस खुशी में है मगर वह खुश जरूर होता है।
त्योहारों का स्वरूप जो पहले था वह कैसा था और आज कैसा ? इस विषय से हम पूरी तरह अवगत भी है। किसी भी बहुत बड़े संघर्ष का परिणाम हमारे त्यौहार है। जिसे हम सदियों से मनाते चले आ रहे है। संघर्ष मनुष्य की एक आवश्यकता है और इस संघर्ष में किसी का अंत और अंत की खुशी एक परिणाम के रूप में उभर कर सामने आता है। हमारी खुशियां आज बहुत से त्योहारों पर क्या वही है जो होना चाहिए? नहीं बिलकुल नहीं , आज होली के दिन भांग पीने की तुलना भगवान् शिव के भांग पीने से कर लेना आम बात है। सड़कों पर लड़खड़ाते हुए गालियां देना और अश्लील हरकतें करना बुराई पर अच्छाई की जीत बताना हो गया है। दिवाली पर बड़े बड़े बम छोड़कर वृद्धों को कष्ट पहुँचाना, जीवों को सदा के लिए ऊपर पहुंचा देना और आस पास के पर्यावरण को बहुत हानि पहुँचाना दिवाली की परंपरा बताया जाने लगा है।
संघर्ष ही जीवन है मगर इस संघर्ष में नए त्योहारों की उत्पत्ति करना हमारा मकसद होना चाहिए। लेकिन यह तभी हो सकता है जब त्योहारों के मनाये जाने के उद्देश्यों और कारणों की तह में हम पहुँच जाए। जिस युग में त्योहारों का स्वरूप बदल जाता है वह त्यौहार एक ढोंग बन कर रह जाता है। वह संघर्ष का परिणाम के रूप में नहीं वह अपने मतलब के लिए मनाया जाता है। अगर आप और हम चाहे तो सैकड़ों बुराईयां है किसी भी बुराई को दूरकर हम नए त्यौहारों के रूप में उसे आगे ला ही सकते है। यदि हम आज के त्योहारों को इसके पुराने स्वरूप में नहीं ला सकते है तो उसके विरुद्ध आवाज तो उठा ही सकते है। लेकिन कहना जितना आसान है, करना बहुत ही मुश्किल है, संघर्ष करना होगा अपने आप से और अपने लोगों से । खासकर विचारों से संघर्ष कभी आधुनिक वैलेंटाइन के तो कभी आधुनिक करवाचौथ के।
शेष अगले अंक में..
धन्यवाद।