Monday 25 May 2020

मरने के बाद पास आते हैं आजकल


कोई ऐसा दिन नहीं नहीं होता, जब मजदूरों की घर पहुंचने से पहले ही मौत न होती हो!
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ट्रेन, ट्रक, बस, टेम्पो ये सब
घर जाने के लिए नहीं मिलते
तस्वीर-गूगल साभार
इनसे मौत जल्दी आती है आजकल

जूता, चप्पल, कपड़े तन पर
घर जाने के लिए नहीं मिलते
मरने के बाद पास आते हैं आजकल

रोटी, साग और अंगोछा तन पर
घर जाने के लिए नहीं मिलते
पटरी पर गिर जाते हैं आजकल

लाठी, डंडा, सहारा कंधे का
घर जाने के लिए नहीं मिलते
पुलिस के डंडे मिलते हैं आजकल

#प्रभात

Prabhat

जब मैंने उससे पूछा कि खैरियत है


जब मैंने उससे पूछा कि खैरियत है सब? उसने कहा- हां। मैंने फिर पूछा, ऐसे कैसे बोल रही हो। कुछ और नहीं बोलोगी? नहीं, बस ठीक है। मैं चाहता था कि वो सब कुछ बक दे। मगर सम्भव न था। मैं दूर था बहुत। चाहकर भी उससे सारी चीजें पूछ तो नहीं सकता था। अचानक से फ़ोन कट गया। मैं पूछने लगा- हेलो, हेलो कुमकुम! किसने किया ऐसा? मैंने तेजी से पूछना चाहा, गुस्से में मैं उठा तो देखा मेरा शरीर पसीने से भीगा पड़ा था। क्या? यह सच नहीं था, खुद से ही सवाल पूछने लगा! एकाएक रात के 4 बजे जगने के बाद नींद नहीं आ सकती थी। लेकिन सोया भी कहाँ था, सब कुछ खुली आँखों से ही तो हो रहा था।
तस्वीर-गूगल साभार


मुझे उससे मिले 3 शरद ऋतु बीत चुके थे। उसने बताया था कि मुझे मेरी माँ की याद आती है। वह दुनिया से तभी चली गई, जब वह होश संभालने लायक हुई। और शरद ऋतु खत्म होने के बाद अचानक से पिताजी का भी साया उठ गया। अब उसके घर में वो और छोटा भाई थे। यही सब सोचते सोचते उसके अंतिम मिलन की बात सामने आ गई। जब उसने कहा था कि अभय तुम मेरे पास से चले जाओ। मैंने कुछ नहीं पूछा था क्योंकि उसने मेरे जाते हुए कुछ बोला नहीं था। मैं खुद से
ही सवाल कर रहा था, ऐसा कहने के पीछे कुमकुम के पीछे का उद्देश्य क्या था? नहीं पता, मगर मेरे कुछ कहने के बाद शुक्रिया के साथ रिप्लाई आया था एक बार। अचानक उसने मुझे सोशल मीडिया पर भी छोड़ दिया।

पिछले 3 सालों में मैंने कभी याद नहीं किया। मगर कुछ ही देर पहले सोते समय ही किसी ने मुझे कॉल पर बताया, अभय। तुम्हें पता है, वो चली गई अब? कहाँ? अचानक से इस प्रश्न का मतलब क्या था, लेकिन वो तो चली गई थी..अब कहाँ से चली गई...? उसका भाई हफ्ते भर पहले वायरल फीवर से चल बसा। और वो खुद इसी तड़प में खत्म हो गई, इतना कहकर मनोज ने फोन काट दिया।

अब जब सोकर उठा था तो मैं अपने आप से यही पूछ रहा था कि क्या 3 शरद ऋतु पार करने के बाद चौथे शरद ऋतु में मैं खुद नहीं जाता? देश मे सब कुछ बंद था शरद ऋतु आते आते तो 1 साल होगा फिर तो खुल जाता सब कुछ! जिंदगी पटरी पर आ जाती। शायद उससे कुछ तो कह पाता...नहीं मेरा सवाल ही गलत है कुमकुम ? क्यों?

मुझे पूछना चाहिए अपने आप से कि मैंने सब कुछ जानते हुए कि तुम अकेली हो और फिर तुमसे एक बार बात करने की कोशिश क्यों नहीं की। यह जानते हुए कि तुमने छोड़ तो दिया मगर मैंने तो नहीं छोड़ा। मैंने यह पूछने की क्यों नहीं हिम्मत की कि तुम्हारे घर में अब तुम 2 हो और तुम्हारी रोटियों का इंतजाम कैसे हो रहा है? मैंने यह जानने की कोशिश नहीं की कि तुम इस बंदी में कैसे 4 महीने बिता सकी हो? मैंने यह जानने की कोशिश नहीं की कि तुम उस शरद ऋतु में क्यों कह गए थे कि चले जाओ! और फिर यह भी नहीं जानने की
कोशिश की कि तुमने क्या कुछ इस बीच खोया...मैं पसीने में था लेकिन मेरा पसीना उस गर्म मौसम का भी था जो अब चल रहा था? मैंने अपनी आंखों में एक बूंद भी न देखा कि गिर रहा हो? मैं इसके बाद कुछ सोच नहीं सकता था, अंत में बस इतना ही सोचा था कि क्या मैं संवेदनहीन अब हुआ हूँ। क्या अब मैं एक बूंद आंसू गिराने के भी काबिल नहीं रहा? ऐसी अमानवीयता का फल मुझे क्या मिलेगा?

नोट- तथाकथित काल्पनिक कहानी लिखने का उद्देश्य सब कुछ भुलाकर एक दूसरे से हाल चाल पूछ लें।


#प्रभात

Prabhat

ताला


ताला
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किसी भी प्रकार का ताला उसके मन की आवाजाही को नहीं रोक पाता वो तो बस गुस्सा, द्वेष, मनमुटाव, खींझ, आह, दर्द, नफरत की बयार में खुद को पाता है। आजादी की भावना पनपती है। अगर वह दोषी नहीं है तो जेल में बंद कैदी कभी सुकून से अपने अच्छे पलों को जी नहीं पायेगा वो तो बस उसका विद्रोह करने के लिए तैयार रहेगा। इसी प्रकार किसी इंसान को कोई बंधक बनाए, मारे पीटे अत्याचारों की गंगा बहा दे, लेकिन अंत सांस तक वो बस उससे बदला लेने की सोचेगा। वो चाहेगा कि उसे सबक सिखाएं। इंसान अपने स्वार्थ के लिए अपने लिए चहारदीवारी भी बना लेता है।
तस्वीर-गूगल साभार


उदाहरण के लिए,स्वार्थी मनुष्य चाहे वो लॉक डाउन से या क्वेरेंटाईन से मजदूरों के ऊपर वार करके अपनी सुरक्षा कर रहा हो। या फिर अपने आपको बचाने के लिए वो किसी और पर बंदिशें लगा रहा हो, चाहे वो पत्रकार हो, चाहे वो नर्स हो, या फिर चाहे वो डॉक्टर हो। मेरा मतलब जो उसकी सेवा करने के लिए विवश हो अपनी और दूसरे की इच्छा दोनों के अनुरूप भी हो सकता है ये। अगर ऐसा होता है तो ये अमानवीय की परिभाषा को तय करता है। आप अगर जिम्मेदार नागरिक हैं तो बस अपने स्वार्थ के चलते दूसरों पर ताला नहीं लगा सकते। अगर वो आपकी जान नहीं बचा सकता तो आप जैसे 10 लोगों की जान तो बचा ही रहा होगा।

लेकिन हमारे वेद, पुराण, कुरआन सब फेल हो जाते हैं जब मनुष्य अपनी जान की परवाह के लिए जिम्मेदारी को न समझते हुये आप पर ताला यानी अंकुश लगाता है। यदि ऐसा न हो तो हम बड़ी से बड़ी आपदा से निकल सकते हैं। ताला लगाने वाला आपका अपना सगा ही होता है जो मोह की संज्ञा में बांध देता है, इसमें आपके गार्जियन आपका मकान मालिक या आपका रिश्तेदार या फिर आपका मित्र भी हो सकता है। वह अपनी सुरक्षा के लिये या यूं कहें अपने मोह से आपकी सुरक्षा के लिए तमाम जतन करता है। उस जतन में एक्सट्रीम लेवल में आप पर दबाव से ताला लगा देता है जिससे वह असहाय हो जाता है। यकीन मानिए आप अपने बच्चों को अगर इसलिये सेवा करने के मौके से दूर करेंगे कि उसकी जान बची रहे तो उसकी जान बहुत जल्दी ही चली जायेगी। ठीक उसी प्रकार ताला लगाकर किसी को रोकना वो चाहे आपका कितना सगा ही क्यों न हो, किसी चीज से रोकने की विधि नहीं है।

अगर आपको ताला लगाना हो तो असल जिंदगी के स्वरूप को समझना होगा। आपको समझना होगा कि ताला लगाना है तो आप अपने पर लगाएं। जहां भी आपको नियम कानून बनाना है वो अपने आप के लिए खुद बनाएं। आप को जागरूक होना है। दूसरों को करना है लेकिन इसके लिए ताला का विकल्प कभी नहीं होता। अंकुश लगाने के उद्देश्य में खुद की स्वतंत्रता और पराधीनता छिपी है आप किसी और की स्वतंत्रता छीन नहीं सकते। आप किसी को गुलाम भी नहीं बना सकते। अगर इस मानसिकता का बोध हर किसी को हो जाये तो वह खुद अपने दायरे में रहेगा। और जब दायरा अपने आपको हर किसी को पता होता है तो दीवार या चाहरदीवारी अपने आप ही बन जाती है। लक्ष्मण रेखा अपने आप खिंच जाती है। आप खुद अपनी परवाह और दूसरों की परवाह करते हैं और फिर ये जो ताला दिखता है ये ताला केवल मन का ताला होगा, किसी दुकान का ताला नहीं होगा।

#प्रभात

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तुम्हें देखने में दिलचस्पी नहीं


तुम्हें देखने में दिलचस्पी नहीं, लेकिन यूं ही एकटक देखना चाहता हूँ
रेत पर पड़ी परछाईं और उसमें तुम्हें ढूंढ़ना चाहता हूँ
चलता रहूं यूं ही, कभी हवाओं, कभी जल की तरंगों के साथ
और फिर टकराहट को इकरार समझ कर मोहब्बत करूँ
तुम्हारी खामोशी को मैं पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी से मापना चाहता हूँ


पुकारूं भी तुम्हें तो गहरी खाई से टकराती आवाजों में मिलना चाहता हूँ

आंखों को बंद करके तुम्हारी संवेदनाओं के साथ बहना चाहता हूँ
तुम्हारी होठों के पास बनी गोलाई में मुस्कुराना चाहता हूँ
पलकों पर सतरंगी बूंदों से ओझल होना चाहता हूँ
नाम में छिपे हर अक्षर को चूमना चाहता हूँ
तुम्हारे सदृश्य छिपे हर किसी में तुम्हें ढूंढ़ना चाहता हूँ
माथे की लकीरों से लेकर गदोरियों की रेखा तक
पैरों में पायल और हाथों में मोतियों के कंगन तक
बिना छुए ही, जुल्फों तक के साये में रहना चाहता हूँ

किसी भी वक्त को दरिया की तरह बहकर टालना चाहता हूँ
मैं रुकूँ, फिर तुम्हारी नजरों के हर पैमानों को पढ़ता रहूं
सफर में पड़ी आंखों के सामने हर हँसी को रोकता रहूं
जानकर सब अनजान बनकर ही तो रहना चाहता हूँ
मैं बीते सारे पलों में हसीं ख्वाब ढूँढ़ना चाहता हूँ
खुद गिरकर भी तुम्हें एकटक निहारना चाहता हूँ
पल-पल किस्सों के दरमियाँ हर मौसम को जीना चाहता हूँ

#प्रभात

किस पल कैसे सबके साथ रहने की दुआ करूँ


जब लॉक डाउन और सोशल डिस्टनसिंग का जमाना चल रहा हो तो...

हर दिन खुद को सलामत रखने की दुआ करूँ
हर दिन खुदा से तुम्हारी सलामत की दुआ करूँ
बहुत बेहिसाब हो रहा है दुआओं का असर अब
किस पल कैसे सबके साथ रहने की दुआ करूँ
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मोहब्बत की तासीर मुकम्मल हो बिछड़ेंगे यूं न कभी
बहुत मजमा है मेरी आँखों में लिखना है कभी न कभी

अब मुझे बता परवरदिगार, कब होंगे मेरे अरमां पूरे
कि मैं अपनी नज्मों से तबस्सुम का इत्र बिखेरुँगा

#प्रभात

Prabhat

फेसबुक पर आने वाला हर शख्स पत्रकार है।


फेसबुक पर आने वाला हर शख्स पत्रकार है। आपको अपनी अहमियत और मर्यादा का पता होना चाहिये। आपको नारद मुनि से सीख लेनी चाहिए। भाषा-शैली और वाद विवाद यहां तक कि संवाद की उच्चतम सीमा तक पहुंचना लेकिन स्पष्टवादिता और सहिष्णुता के साथ।

आप बेबाक हैं लेकिन आपकी बेबाकी में खून खौलता है, आप निराशा के बीज से अपने दूसरों को निर्जीव करते हैं। आप अपनी हास्य के माध्यम से बारम्बार रावण का अभिनय करते हैं। आप अपने अपमान का बदला लेने के लिए ऐसे तड़पते हैं जैसे द्रौपदी लेकिन उसके जरूरी नहीं कि हर कोई दुर्योधन ही हो। आप इंसान में मजहब की लाइन खींचते हैं तो खास मकसद होता है कि उसके अस्तित्व को ही चुनौती दे दूं। आप गरीब-अमीर, सवर्ण-पिछड़े, हिन्दू-मुस्लिम, पढ़ा लिखा- अनपढ़ के बीच ऐसी रेखा खींचते हैं कि वह लक्ष्मण रेखा हो जाती है नवजातों के लिए यानी हर अनजान के लिए। हर मासूम के लिए।

फिर आप अपने जिम्मेदारियों से भागने लगते हैं ठीक उसी तरह जैसे भीष्म अपनी प्रतिज्ञा की ढाल पर भरी सभा में चीरहरण के गवाह बनते हैं, ठीक उसी तरह जैसे द्रोणाचार्य, युद्ध में अपने सर्वश्रेष्ठ शिष्य से लड़ने पहुंच जाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे शांतनु गंगा के वसीभूत होकर राजा का कर्तव्य भूल जाते हैं और महाभारत हो जाता है।

हमारे सामने हो रही मौतों को इसलिये हम चर्चा नहीं करते क्योंकि वो असहाय, बेसहारा और प्रसिद्ध नहीं होता, हिन्दू मुस्लिम एंगल नहीं मिल पाता क्योंकि वह सत्ता या विपक्ष इनमें से किसी का नहीं होता लेकिन लिंचिंग तो हर रोज ही होती है। रेप तो हर रोज ही होते हैं। हैवान इंसान को हर रोज मारता है। वर्दी खूनी हर रोज हो रही है। लेकिन ये सब हम वैसे ही भुला देते हैं जैसे पांडवों व कौरवों के बीच हुए युद्ध में सैनिकों का हर दिन कटना, मरना। चाहे वे धर्म का साथ दे रहे हों चाहे वे अधर्म का।

सबसे ताकतवर इंसान इस संसार में बहुत लंबी आयु प्राप्त करता है। ताकतवर मतलब वही डार्विन ने जैसा कहा था। वह अगर लड़े भी तो हत्या तो कमजोर का ही होगा। उसके लिए अदालतें जैसी चीजें भी कुछ नहीं होती उन्हें भी साथ देना पड़ता है। उसके लिए विधि बनते हैं और विधि बदलते भी हैं। उसको प्राण देने के लिए संसार के सारे वैद्य आस पास घूमते रहते हैं। ये ठीक वैसे ही है जैसे भगवान अवतार लेते हैं किसी को मारने के लिए। चाहे वो कृष्ण को लें या राम को। हां आप चाहें तो रावण को भी ले सकते हैं। लेकिन इसमें भी 2 ताकतवर के बीच केवल एक ही ताकतवर जिंदा रह सकता है।

अंत में बस इतना ही कि मौत तो सबका ही होना है। अपराध तो हर मौत पर है। गुनाह तो हर रोज होता है। सजा तो हर दिन मिलता है। चर्चा तो हर रोज होती है। सोचता तो हर कोई है। निशाने पर किसी न किसी को आना है। प्रायश्चित सबको करना है। सभी के प्रकार हैं और सभी की अपनी अपनी व्याख्या। लेकिन सर्वश्रेष्ठ तो वही है जो ताकतवर है उसी के विचारों का भार होगा, हां ये अलग बात है कि कमजोर भी अपने विचारों से मात देने की उसे कोशिश करे लेकिन हो सकता है वह एक दिन असफल ही हो जाये, क्योंकि वह एकलव्य भी बन सकता है और सूतपुत्र कर्ण भी।

आप अगर वास्तव में जीना चाहते हैं तो ताकतवर और कमजोर बनने के बीच में जीने की कोशिश कीजिये। आप अपने विचारों में कट्टरता का लोप कर दीजिए। आप सहनशील होइए और गंभीर भी। आप गुस्सा करिए मगर अच्छी सोच के साथ, जिससे किसी अच्छे का अहित न हो। आप ज्ञान की रेखा खींचकर बंटे मत रहिए। आप ज्ञान लीजिये दोनों तरफ की तराजू से तौलिए जिसका पलड़ा भारी हो उसे संतुलित करिए केवल ज्ञान के प्रकाश से, केवल खोज से। फिर इस पलड़े में और उस पलड़े में जो भारी हो उसे भारी महत्व दें लेकिन यह भी ध्यान रखें संतुलन करना आवश्यक है इसलिए जितना अधिक भार दूसरे की तुलना में पहले वाली की है उतना ही उसे फिर से ज्ञान से ही संतुलित कीजिये। देखिये यही न्याय का सिद्धांत है। इसी से कर्म और जन्म सुनिश्चित है। कमजोर यानी कम भारी वाले पलड़े पर बैठे इंसान/हैवान की मृत्यु को आप मत सुनिश्चित कीजिये। वो अगर संतुलित करने पर आपसे संतुलित नहीं हो पा रहा तो वह एक्सक्ल्यूड हो ही जायेगा।

#प्रभात

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महबूब की मोहब्बत का हिसाब कौन मांगता है?


महबूब की मोहब्बत का हिसाब कौन मांगता है?
दरिया में बहने का ख्वाब कौन मांगता है?
जो सब कहते है उससे कुछ कहना क्या है?
इस मासूमियत में रखा क्या है?

ये सन्नाटा दिलों में ताजगी लाएगा
दिलों की उदासी पर मरहम तो लगाएगा
बेवजह खौफ किसी का अच्छा तो नहीं होता
आजाद रहना है तो किसी से कहना क्या है?
दबकर रहने में रखा क्या है?

समुद्र के बहने पर बहता कौन है?
मनमौजी शरारतों से खेलता कौन है?
चिड़ियों को ही तो पास जाना पड़ता है
वरना उसे पूछता कौन है?

#प्रभात

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कोरोनावाणी- चूड़ियांहिन


पहली फ़ोटो देखिये। दिल्ली के इस दृश्य को देखिये। एक आदमी घर- घर जाकर अंडरवीयर, तौलिया और महिलाओं कपड़ों को पहुंचा रहा है। अक्सर ऐसा दृश्य गांव में तो दिख जाता है कभी कभार पर शहरों में दिखना कोरोना के दौर में ही सम्भव हो पाया है।
दूसरी फ़ोटो गूगल से मिली है। इसमें जो औरत है उसे हम चूड़ियांहिन बोलते थे। बचपन में ये घर घर दौरी (लकड़ी की टोकरी) में चूड़ियां बेचने के लिए जाया करती थीं। दादी जी के सामानों से लेकर बच्चों तक यानी हम लोगों के सामान उस दौरी में मिल जाया करते थे। आज भी चूड़ी बेचने वाले गांव में फेरी लगाते हुए मिल सकते हैं लेकिन वो महिला नहीं, बल्कि पुरुष होगा और पैदल नहीं वो साइकिल पर बने बनाये डिब्बे में बंद लेकर बेचता दिखाई देगा। अब बाजारीकरण ने स्वरूप को बदल दिया है। हमारे यहां चूड़ियांहिन का चेहरा कुछ अजीब सा था पान खाना या गुटका चबाने वाली महिला की तरह। खैर
चूड़ियांहिन की बात कर रहे हैं लेकिन हमारी क्या रुचि होती थी। हमें करधन पहनने का शौक चढ़ता तो दादी से जिद करके ले लेते थे। नहीं तो चूड़ियांहिन खुद ही सब कुछ देकर जाया करती थीं। जिसमें बहुओं के लिए अलग प्रकार की बिंदी, टिकुली और साजो सज्जा के सामान और दादियों के लिए अलग प्रकार की। और हम बच्चों के लिए अलग प्रकार के सामान।

गांव की दोपहरिया में चूड़ियांहिन एक चूड़ी बेचने वाली महिला नहीं हुआ करती थीं। उनका सम्बंध सामाजिक स्तर पर मजबूत होता था, जहां जाती थीं उन्हें पता होता था कैसे किससे और कितना बात करना होता था। लंबी दूरी तय करते हुए थक कर वहीं बैठती थीं जब दुवार पर प्रवेश होता था। फिर दादी जैसे बुजुर्ग लोग उन्हें पानी पिलाते थे। और फिर हाल चाल भी पूछा जाता था। यहां तक कि कहां थे अब तक, बहुत दिनों बाद आये। क्या मार्केट ने नया आया। क्या पिछली बार से इस बार नया लायी हैं। क्या बहू को सूट करेगा वगैरह वगैरह और हम बातों को सुनने के लिए ही पहुंच जाया करते थे। शायद हमारी यानी बच्चों के व्यवहार पर भी बात हो ही जाया करती थी। कुल मिलाकर व्यापार और सामाजिक संबंधों का बड़ा महत्व दिखता था।

अब लॉकडाउन में इस तरह आदमी को ठेला लगाए हुए देखकर अकेले बस यही लगता है यहां वो आदमी भी नया है और लोगों से सामाजिक सम्बंध तो जीरो है ही। तो ऐसे में व्यापार कहां से होगा और समाज में वो खुशियां कहां आएंगी। आज तो वैसे भी व्यापार का अपराधीकरण हो चुका है। वैश्वीकरण तो है ही।

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