Monday, 25 May 2020

सुकून की नींद को हरदम ही तोड़ जाता है वो


सोचता है वो खोजता है वो, खुद को कहाँ पाता है वो
खामोश लफ्ज हों या आलम हर बार सो जाता है वो


किसी का चेहरा हो कभी या किसी की आवाज
सुकून की नींद को हरदम ही तोड़ जाता है वो

शाम हो गयी हो या रंग बादलों में बन बिगड़ रहे हों
यादों का रंग बुलबुला बनकर बिखेर जाता है वो

गुलों का खिलना हो या बासंती भ्रमरों का मचलना
उसे देख कर सिहरना और फिर सब भूल जाता है वो

मस्ती में घूमना और फिर तरु की ओट में बैठ जाना
मां के आंचल में छिप उससे मिलने चला जाता है वो

मैं-मैं हूँ कभी या तुम-तुम हो, कभी नहीं बताता है वो
कुछ भी कहीं हो, किसी ने कही हो 'हम' कह जाता है वो

#प्रभात

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