रेत पर पड़ी
परछाईं और उसमें तुम्हें ढूंढ़ना चाहता हूँ
चलता रहूं यूं ही, कभी हवाओं, कभी जल की तरंगों
के साथ
और फिर टकराहट को
इकरार समझ कर मोहब्बत करूँ
तुम्हारी खामोशी
को मैं पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी से मापना चाहता हूँ
पुकारूं भी
तुम्हें तो गहरी खाई से टकराती आवाजों में मिलना चाहता हूँ
आंखों को बंद
करके तुम्हारी संवेदनाओं के साथ बहना चाहता हूँ
तुम्हारी होठों
के पास बनी गोलाई में मुस्कुराना चाहता हूँ
पलकों पर सतरंगी
बूंदों से ओझल होना चाहता हूँ
नाम में छिपे हर
अक्षर को चूमना चाहता हूँ
तुम्हारे सदृश्य
छिपे हर किसी में तुम्हें ढूंढ़ना चाहता हूँ
माथे की लकीरों
से लेकर गदोरियों की रेखा तक
पैरों में पायल
और हाथों में मोतियों के कंगन तक
बिना छुए ही, जुल्फों तक के
साये में रहना चाहता हूँ
किसी भी वक्त को
दरिया की तरह बहकर टालना चाहता हूँ
मैं रुकूँ, फिर तुम्हारी
नजरों के हर पैमानों को पढ़ता रहूं
सफर में पड़ी
आंखों के सामने हर हँसी को रोकता रहूं
जानकर सब अनजान
बनकर ही तो रहना चाहता हूँ
मैं बीते सारे
पलों में हसीं ख्वाब ढूँढ़ना चाहता हूँ
खुद गिरकर भी
तुम्हें एकटक निहारना चाहता हूँ
पल-पल किस्सों के
दरमियाँ हर मौसम को जीना चाहता हूँ
#प्रभात
No comments:
Post a Comment
अगर आपको मेरा यह लेख/रचना पसंद आया हो तो कृपया आप यहाँ टिप्पणी स्वरुप अपनी बात हम तक जरुर पहुंचाए. आपके पास कोई सुझाव हो तो उसका भी स्वागत है. आपका सदा आभारी रहूँगा!