एक शहर की ओर
प्रस्थान कर गया था
तन पर लिपटे कपड़े
की तरह मासूमों को बोझ बनाकर|
मौसम प्रतिकूल था,
बारिश का मौसम
कभी तो कभी गर्मी में लू का कहर
लेकिन मेरे छत पर
वही खाली आसमान और मेरे नीचे खाली जमीन थी|
ठंड में मैं
हथौड़े चलाता, और गर्मी में
भट्टियों में रोटी सेंकता...
पत्नी का पसीने
से भीगा चेहरा,
बच्चे का कूड़े की
ढेर पर खेलता चेहरा लिए मैं अपने तन से खेलता रहता...
थोड़ी सी जगह मिली
थी मुझे किसी के एहसान पर
और अब सड़कों पर
सन्नाटे ने बता दिया कल से मत आना
मैंने पूछ ही
लिया क्यों?
मालिक ने कहा-
कर्फ्यू है, महामारी है।
मैंने पूछा, हर दिन तो
महामारी से गुजरता हूँ, और यह महामारी क्या इससे भी बड़ा हो गया?
लेकिन, विवशता में जैसे
आया था उस गांव से
उससे कहीं अधिक
विवश होकर लौट चला
पत्नी ने कहा ही
था कि भूख का क्या होगा, बच्चा तड़पने लगा था
मैंने कहा- देखते
हैं कल तक कहीं न कहीं मिल ही जायेगा
दूसरे दिन कुछ
वर्दीधारियों ने रोक लिया
मुझे कैद कर दिया
एक जगह
उसी तरह जैसे
इजलास पर कोने में खड़ा किया जाता है
लेकिन, कुछ तो नया था
यहां कोई मुर्गा
बना बचपना देख रहा था, कोई डंडों की मार से कोड़े वाला खेल का शिकार हुआ था
लेकिन भूख तो मिट
गई थी जैसे तैसे
और फिर चल पड़ा
आगे के 300 मील के सपने में टूटते कमर और घहराते पैरों के साथ
हुआ यूं कि अब
चलना शेष बाकी न था,
मैं पहुंच गया था
कई हजार मील दूर सबको छोड़
बस कहना बाकी था
कि इस महामारी का बस नाम ही था...
#प्रभात
Prabhat
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