Tuesday 4 December 2018

न जाने क्यों उससे प्यार कभी नहीं हुआ उतना


न जाने क्यों उससे प्यार कभी नहीं हुआ उतना
जितना कि उसके नाम से।

नाम का पास से बार-बार गुजरना
बार बार खोना और
बार बार नाम का उतना ही प्रभाव होना।
खो देने का अब भी उतना ही डर
जितना कि पहली बार था।

समुद्र की लहरों सी बार बार उसके बालों का सामने आना
उसकी हंसी में उसी प्रकार खो जाना जैसे पानी में खुद को उतारकर उसमें भींग जाना और फिर उसमें डूब जाना।

किसी प्रतिध्वनि का इस तरह सुनाई देना कि
सुनकर उसी के साथ लौट जाना बहुत दूर
शायद इतना दूर कि लौटकर आने में
उतने ही दिन लग जाएं जितने कि
पीले गुलाबी फूलों का बरसात के मौसम में फिर आना।

बारिश यानी कि शिमला, मंसूरी और कोलकाता की नहीं
पहचान है तो इसकी बस
उसके भींगते हाथों को पकड़ कर दूर तक जाने की
और फिर लौट कर आते वक्त उसका मुझमें
और मेरा उसमें समर्पण इस कदर कि फिर
छूट कर न जा सकें वो हाथ की अंगुलियां और
फिर चली जाएं तो फिर पकड़ ही ना सकें कभी
ठीक वैसे जैसे समय का निकल जाना।

लेकिन उसको याद करके इस समय को भी छोड़ जाना
और फिर इस समय को छोड़ कर फिर वहीं डूब जाना
यानी हर बार वहीं वहीं वहीं.....
यही तो प्यार है शायद!!!

-प्रभात

किसी की अक्स पे कुर्बान


किसी की अक्स पे कुर्बान, ये सारे गम तो नहीं होते
अगर होते भी तो क्या, तुम नहीं होते

हमने देखा है लहरों में नईया पार होते
डगमगाकर चलते और फिर शांत होते

खेवनहार की साहस पर तरंगों को शर्मशार होते
कुछ दूर चलते और फिर सब पर अधिकार होते

किन्हीं पलकों के साये में ख्वाब पलते कम नहीं होते
अगर होते भी तो क्या, तुम नहीं होते

-प्रभात

ये समाज कहां जा रहा है


पीरियड्स में महिला सैनिटरी नैपकिन लेकर न जाये मंदिर तो ऐसे मंदिर में उन सभी का आना वर्जित हो जो गंदी मानसिकता वाले हों। यंत्र लगाने के लिए सरकार को आगे आना चाहिए जो यह मापे कि कौन कितना दूषित है।

सैनिटरी नैपकिन को मंदिर में ले जाना बड़े बड़े नारीवादियों को भी खूब गंवारा लगा। उन्हें हज़म नहीं हुआ तो रेहाना पर नारी विमर्श को ही अलग कर दिया। सवाल यह नहीं उठाया कि रेहाना सबरीमाला मंदिर की ओर क्यों और किस हालात में जा रही हैं। मंदिर में सैनिटरी नैपकिन को ले जाना सुनते ही उन्होंने उन्हें समाजसेवी मानने से इनकार ही नहीं किया बल्कि उनके नारी सशक्तीकरण की लड़ाई को बेबुनियाद मानते हुए उन्हें घिनौना हरकत करने वाली औरत मान लिया गया। उन्हें सेक्स रैकेट और अभद्र असभ्य मॉडल मान लिया गया।
दुख होता है जब उनकी सैनिटरी नैपकिन ले जाने पर महिलाओं ने ही उनका विरोध करना शुरू कर दिया। लोगों का ध्यान इससे हट गया यहां तक कि मीडिया ने भी इतनी भ्रांतियां फैला दी कि वास्तव में रेहाना गलत थीं और उन्होंने आस्था के साथ मजाक करने का काम किया है। यही चाहता था आस्था के नाम पर पुरुषवादी मानसिकता वाला समाज जो हमेशा समानता को दूर ले जाने का काम किया है।

मैं तो यही कहूंगा कि समाज और समाज के लोगों को वर्ग और धर्म से अलग इस पर विचार क्यों नहीं करना चाहिए कि मंदिर जाने का मतलब महिला या पुरुष वर्ग नहीं है। मंदिर सबके लिए है। चाहे वह सैनिटरी लेकर जाए या गंदे कपड़े। सबको अनुमति होनी चाहिए। क्या बीमार पुरुष मंदिर में प्रवेश नहीं करते?

क्या अशुध्द मन लेकर तथाकथित भक्त मंदिर में प्रवेश नहीं करते? अब वक्त आ गया है कि ऐसे भक्त और बाबा जिनकी मानिसकता ही दूषित हो चुकी है जो हमेशा धर्म के नाम पर लोगों के साथ खिलवाड़ करते हैं। उनका बहिष्कार करते हुए मुख्य धारा में समाज के साथ आना चाहिए जिसमें सबका समान रूप से भागीदारी हो....भगवान अयप्पा भी यही चाहते होंगे।
वक्त आ गया है कि रेहान और भी पैदा हों और अपनी आवाज बुलंद करें।

-प्रभात

किस चीज का गुमान है मेरे दोस्त


किस तरह डूब जाऊं मैं अब भी ख्यालों में कि जोखिम भी न हो और गीत भी गाता रहूं...
बिछड़ जाऊं दूर भी रहूं लेकिन पास आता रहूं...
है क्या कोई जिंदगी जिसमें हमसफर भी न हो और तुम्हारे साथ चलता रहूं...
(किंकर्तव्यविमूढ़। ऐसी पंक्तियां हैं, मैं नहीं)
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किस चीज का गुमान है मेरे दोस्त
सब किया धरा व्यर्थ जाएगा एक दिन
मंजिल पाने की दौड़ में अंधा न हो
सबका हिसाब करने आएगा एक दिन

किसकी खुशी मुकम्मल की है तुमने
किससे रिश्ते कैसे निभाये हैं तुमने
किसके कंधे पर बैठे रोटियों को पाने
किसकी तारीफ में तुमने भुला दिया उसे
किरदार किस्सों में बन कर घूम लो कहीं
असल किरदार निभाने आएगा एक दिन
इंसानियत मिलने तुमसे आएगा एक दिन

-प्रभात

कोई और आ गया, वो न आए कभी


महफ़िल सज रही है, नजरें मिल रही हैं
मेरी तरफ देखो, अब शायद तुम मुस्कुरा दो
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इस तरह वो मुझसे खफा थे, चले गए और फिर न आए कभी
मैं लौट कर आया बार-बार और वो मुस्कुरा भी ना पाए कभी

इस तरह आना जाना लगा रहा भीड़ में बहुत हुस्न वालों की
वो मेरा होने चले थे, मैं उनका हो गया वो तन्हा भी थे कभी

जो भी आया पास मेरे, साथ देने लगा उसका हमराज बनकर
वो उसी के साथ हो गए, कोई और आ गया, वो न आए कभी
-प्रभात

जीवन का सच


कभी-कभी बात समझ आती है तो मैं सही सोचता हूँ। लेकिन यह तब होता है जब मैं मौत के करीब होता हूँ। सबसे परेशान होता हूँ। मैं ही मैं होता हूँ।
लेकिन बला टलते ही भूल जाता हूँ कि क्या सोचा था।


जब परेशानियां हावी होती हैं, सब हाय-हाय कर रहे होते हैं। मैं खाट पर होता हूँ। सोच रहा होता हूँ कि जिंदगी का सच क्या है। जीने का मकसद क्या है। कौन मित्र है कौन शत्रु है। कौन भाई है कौन परिवार है। हमने किसको क्या दिया है और हमने किससे क्या छीना है। तब समझ आता है कि जिंदगी का सच क्या है। अब लगता है कि हां अब सब कुछ बेकार है केवल खुशी और उस खुशी का कारण खुद के द्वारा किया गया कोई ऐसा अच्छा काम जिस पर आप खुद के ऊपर गर्व कर रहे होते हैं, वही होता है। पैसा, गाड़ी, जमीन सब बेकार सा लगता है।

यही एक ऐसा क्षण होता है जब लगता है कि अब बस जिंदगी अच्छी हो और हम स्वस्थ रहे और हम कुछ अच्छा करें। यही जीवन का सच है।

नोट: 'मैं' शब्द का मतलब मैं नहीं हूं। यह सब पर लागू होता है।

सोशल मीडिया तेरी जयकार


सोशल मीडिया तेरी जयकार
फेकमफेक न्यूज आये बारम्बार

एक दिन में एक फोटो लोड हो गई पोस्ट में
सबने लाईक की उसे दबा दबा के होंश में
कोई व्यक्त हुआ सैड तो कोई इमोजी में रोया
अगले दिन पता चला फर्जी है फोटोफार
फोटोशॉप करके एडिटर फरार
सोशल मीडिया तेरी जयकार


योगी, मोदी राहुल की शादी होती है हर बार
एफबी पर होती है इंगेजमेंट की पहली बात
अब ग्रुपों में शेयर दिखते कपल्स के अवतार
गाली गाली में चढ़ा देते तिलक, कमेंट के यार
फेंकू चैनल कर देते हैं न्यूज का विस्तार
सोशल मीडिया तेरी जयकार

जिसको दिया गया श्रद्धान्जलि व्यक्त किया शोक
कॉमेंट में आया आरआईपी और रोए इमोजी चोंक
नए नए फोटो ढूंढ़ के व्हाट्सअप में दिए डार
पता चला जिंदा आदमी को दिए पहले मार
सुन सुन के वो हो गया है इतना बीमार
हर्ट फेल हो गया न्यूज सुनकर इस बार
सोशल मीडिया तेरी जयकार

लड़की बनकर फेसबुक पर रिक्वेस्ट भेजें फ्रॉड
लिस्ट में म्यूच्यूअल देखकर किया साथी ने स्वीकार
चंचल लड़के ने दिया नंबर फ्रेंड बना जो एफबी का
लड़की ने बात-बात में लूट लिए पैसे हजार
अकॉउंट हैक हुए कई बार
सोशल मीडिया तेरी जयकार

अब चैनल के नाम हैं फेंकू, फ्रॉड और सेक्सी खबर
लोटनतोप, घसोटनतोप के बढ़े इससे व्यूज हजार
कोई न्यूज का सच बताकर लूट रहा वाहवाही
तो कोई सच के नाम सेक्स का डाल रहा हथियार
पाठकगढ़ क्लिक कर बन जाएं पोर्नस्टार
सोशल मीडिया तेरी जयकार

-प्रभात
तस्वीर: गूगल साभार

धारा 497, "दारू पीना अपराध नहीं है लेकिन मैं नहीं पीता।"


"दारू पीना अपराध नहीं है लेकिन मैं नहीं पीता।"
पतियों को चिंता सता रही है भाई कि पत्नी किसी और से संबंध बना लेगी और पत्नियों को तो पहले भी थी और अब तो क्या ही कहना।
भाई इतना ही विवाह जैसी पवित्र संस्था है तो उसे कायम रखने के लिए कानून की क्या जरूरत। कुछ भी कहें। पवित्रता तो जुड़ाव से आ जाती है और जुड़ाव तो विश्वास करने से होता है। विवाहेत्तर संबंधों को अनुचित बताने वाले वे भी हैं जो ऐसे संबंधों को पहले ही अपने मन से मान्यता दे चुके हैं।

मैं तो कहता हूँ डर है तो छोड़ दो प्रेम करना।
छोड़ दो अपने मन की बात कहना।
छोड़ दो संबंधों का मजाक बनाना।

कभी संबंध खूटे में बांधकर नहीं बनते। एलजीबीटी पहले भी था जब कानून नहीं था। प्रेम वहां भी होता है जहां आजादी नहीं होती और यहां तो हर पंछी क्या कण कण आजाद है। कानून से इतर भी कोई चीज होती है, खुद के आचार विचार और संहिता भी होते हैं।
लोग भूल जाते हैं कि आत्महत्या के उन कारणों देखने में जो इसकी वजह बन जाते हैं कि कानून की जकड़न और पति के खूंटे से बंधे होने की वजह से वो अपना संबंध कहीं और नहीं जोड़ पातीं।
समाज। हंसी आती है किस समाज की बात करते हैं भाई साब जिस समाज में सेक्स को लेकर दोनों एक दूसरे को फांसी में चढ़ाने की बात करते हैं चाहे वे पति हों या पत्नी।
जरूरी ये नहीं कि विवाहेत्तर संबंधों पर बहस करना। जरूरी ये है कि अपने संबंधों के आधार को प्रगाढ़ बनाने की और जरूरत ये भी है कि झूठे आरोप लगाने से बचें। बस आप आजाद रहें...
-प्रभात
तस्वीरः गूगल साभार


फेसबुक पर आकर वो


फेसबुक पर आकर वो अब भी ढूंढ़ती है मुझे
मुझे इस तरह तन्हा करके उसको सूकून कहाँ




चाँद का दीदार करने को घंटों इंतजार करती है वो
इश्क़ का मुझसे इजहार कुछ इस तरह करती है वो

भीड़ में देखा उसको इस तरह बेचैन होते हुए
उसको मेरी सूरत देखने की ललक हो जैसे

मेरे माथे की लकीर को पास से पढ़ गई है वो
हर किसी के जिस्म पर खोजने से मिलती कहाँ



-प्रभात

बस यूं ही


हम तो किसी से बेवजह बात नहीं करते
झूठ नहीं बोलते तो सच भी नहीं कहते




जिंदगी में गम की बारिशों ने डुबोया बहुत
खुद नहीं डूबते तो डुबोया नहीं करते

इश्क़ का तोहफा कुबूल हम कैसे करें
वो मेरा नहीं करते तो हम कैसे करते

-प्रभात

वरना हम यूँ ही साथ-साथ बह जाएंगे


हवा को ताकत दे बहने की तो मुझे रोकने की,
वरना हम यूँ ही साथ-साथ बह जाएंगे
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मुझे नफरत सी हो गई दोस्ती से यारों
कुछ इस तरह प्यार करके मैं टूटा हूँ
तुम्हें संभालने की जिम्मेदारी थी मगर
खुद संभल जाऊं पहले यही सीखा हूँ।
कुर्बानियां दी हैं जो मैंने भावनाओं की
तुम्हारी कद्र ही न करूं यही चाहता हूँ।
खुश रखूंगा उन्हें, विश्वास था इतना मुझे
लेकिन उन्हें खामखाँ लगा कि मैं झूठा हूँ
मंजिल को पाने को बेताब था बहुत तब
अब बेपरवाह जहां हूँ वहीं, खुश बैठा हूँ
नोट: ये सब बहाना है, जिंदगी में किसी को न लाना है। चाय पीकर काम चलाना है, बीयर-व्हिस्की को दूर भगाना है। कृपया सीरियस न लें जनाब ऐसे टाइम पास करने फेसबुक पर आना है।

-प्रभात

रेल की खिड़की के पास बैठी वह लड़की


सांझ ढल रही थी और हांफते हांफते रेल में चढ़ा था। बस सीटी बजकर खुली ही थी रेल और उसने दूर से ही देखकर मेरी तरफ इशारा किया कि मैं यहां हूँ। हंस रही थी पगली उसके दांत दिख रहे थे और मैं भी चलती रेल देखने के बजाय उस पर ही निगाह दौड़ाया हुआ था। जल्दी से पायदान पर पैर रखकर उसकी ही सीट के पास पहुंच गया। उसने कहा कुछ नहीं लेकिन समझ गया था कि वह अपने पास बैठने के लिए कह रही थी।
झट से मैं बैठ गया। अरे पसीना! इतना कहकर वह अपने सिल्की दुपट्टे से मेरे माथे के पसीने को पोछने लगी, जैसे वह कह रही थी कि अरे तुम्हें इस पूस की शाम इतनी गर्मी कैसे आ गई। क्यों पीछे रह जाते हो, कहीं तुम यह रेल न पकड़ पाते तो!


मैं हल्का सा मुस्काया और कहा तो फिर मिलते वहीं जहां तुम पहुँच जाते, भले ही थोड़ी देर बाद ही सही।
उसने कहा 'नहीं' फिर मेरा रास्ता कैसे कटता। फिर मुझे लगा ये क्या बात हुई। झूठ ही बहाना मार रही लड़की। मैंने मन ही मन सोचा.….बस कहा नहीं।
फिर थोड़ी देर बाद उसी में जैसे ही यह लाइन उसने जोड़ा मैं तो तुम्हारी वजह से ही जा रही हूं इस ट्रिप में वरना मैं न जाती।
मुझे फिर लगा कि कुछ इमोशंस का भी खेल है।
खैर और सभी बच्चे खेलने में व्यस्त, कोई चिड़िया उड़ और कोई कौवा उड़ बोल रहा था। शोर बहुत कम सुनाई दे रही थी। रेल अपनी गति की अधिकतम सीमा के करीब पहुँच गई थी। रात हो चुकी थी। लेकिन सांझ अब भी अपनी छाप आसमान में छोड़ रखा था। गुल्ली डंडा वाले लड़के और उनके गांव पीछे छूटते जा रहे थे। अब तक पसीना सूख चुका था।
वह लड़की अब बात कर रही थी लेकिन उसकी बातें अब रेल की आवाज में दब सी जा रही थी।
मैंने कहा अरे उधर देखो कितना सुंदर सूरज का गोला हमसे दूर होते जा रहा है। वह अपना कैमरा घुमाते हुए बोली। अरे मुझे कैद करने दो इसमें सारी तस्वीर। जैसे ही कैमरा उसने घुमाया रेल घूम गयी और दृश्य आंखों के सामने से एकाएक गायब सा गया। अब उसने गुस्से में अपना कैमरा मेरी तरफ घुमाया और उसमें मेरी एक ऐसी तस्वीर खिंच गयी जिसमें मैं उसे प्यार भरी नजरों से देख रहा था और देखते हुये मेरी खामोशी इतनी हावी थी कि मेरी मुस्कराहट गायब थी। मैंने कहा प्रिय तुम इसे डिलीट कर दो अच्छी नहीं है। उसने चिढ़ाते हुए कहा, जाओ नहीं करती मैं।
रात में खिड़की वाली सीट पर बैठे हम दोनों बाहर यूँ ही देख रहे थे। सब ओर काला काला ही था। कुछ भी तो नहीं था बाहर लेकिन उस अंधेरी रात में मैं था और वह थी। उसकी खिलखिलाहट और उसके बाद खामोश चेहरा था।उसकी काली काली बड़ी आंखें और चेहरे पर प्यार भरे भाव की झलक थी। उसके बालों की खुशबू और उन बालों के करीब मेरा खोया हुआ मन था।......इसके बाद इतनी खामोशी के बाद जब मैंने थोड़ी देर के लिए कुछ नहीं कहा तो उसने कहा कि तुम कुछ कहना चाहते हो। मैंने कहा, नहीं।
उसने कहा देखो आकाश के करीब या इन बाहर से आती हवाओं को। खिड़कियों से दूर उस आकाशगंगा की सैर लगा लो जो तुम्हें थोड़ी देर के लिए मुझसे दूर लेकर चली जाए। मैं सच में थोड़ी देर के लिए बाहर देखने लगा उसे बिना देखे ही। निहारे ही। मैं झांक रहा था जैसे वह झांक रही थी बाहर। मैं अंधेरे में अब सब कुछ वह देख रहा था जो मुझे उसे दूर करने के बजाय बहुत करीब होने का एहसास करा रही थी। मैं सोच रहा था कि सचमुच इस खामोशी में जो प्यार भरा संवाद है वह मुझे उसके पास बैठे होने के बाद और गंभीर बना रहा था कि उसके दिल की धड़कनों को सुन सकूँ। उसे और तवज्जो दे सकूँ।
मैं उसके करीब था लेकिन, इतना ही करीब कि केवल आंखों की पलकों को गिराकर उसके सिर के पार्श्व हिस्से में दिख रहे बालों को ही देख सकता था बाकी सब कुछ ओझल हुआ जा रहा था। वह चाहे खिड़की के बाहर का दृश्य हो और चाहे उसके पास बैठे होने का दृश्य।

यही तो प्यार है (कुछ अनकहे किस्से)
-प्रभात

बस इतनी ही तो चाहत थी कि कोई दीवाल न हो


बस इतनी ही तो चाहत थी कि कोई दीवाल न हो,
जो तुम्हें और मुझे अलग कर सके।
कोई ऐसी रात न हो,
जो तुम्हें और मुझे उस रात की याद से बाहर कर दे,
जिस रात हमारी मुलाकात हुई थी।
कविता कोई ऐसी न हो जिसे तुम पढ़ न सको
मेरे लिखने से पहले, लिखने के बाद भी,
यहां तक कि मेरे अलविदा कह देने के बाद भी।
लेकिन, नहीं


ये तो चाहत थी मेरी और तुम्हारी न।
कहानी थी और कविता भी।
लेकिन, दीवाल तो थी ही
हम कब तक इसे नजर अंदाज करते,
कि वक़्त की कुछ खूबियां हैं,
हर रात के बाद सुबह होनी ही है।

लेकिन पूस की उस एक रात को
ऐसे हर बार लिखता रहूंगा
क्योंकि ये मेरी चाहत नहीं रही कभी।

-प्रभात

लड़के औऱ लड़कियों के खिलौने


बचपन का मेरा खिलौना टूट गया है आधा आधा हो गया है। आंगन में पड़ा था। नजर गई और बड़ी मुश्किल से इसे जोड़ कर अमरूद के पेड़ की टहनियों के बीच रखकर तस्वीर में कैद किया हूँ। इस खिलौने की खास विशेषता यह थी कि यह गुल्लक का काम करता था। लगता है इसके साथ ज्यादती भी पैसे निकालने के चक्कर में हुई तभी इनकी दशा ऐसी हो गई।

जैसा बचपन बीता उसी के आधार पर खड़े होकर जवानी को जी रहा हूँ। आज लड़कियां अगर गुड़िया से खेलती हैं तो लड़के भीम और डरावने बंदूक से खेलते हैं। लेकिन हमारे बचपन में घर में गुड़ियों के समतुल्य यह खेलने के लिए मिलता था। इस छोटे क्यूट लड़के से भी छोटा था तब इस साथी से मुलाकात उस एन पर हुई थी जब मैं किसी खास आमाशय की पीड़ा से कराह रहा था। मैं इसे देखता और फिर इसकी तरह सोचते सोचते चुप हो जाता।
मैं सोचता हूँ कि आज बच्चे इतने आगे निकल गए कि मां की गोद में बैठकर रिमोट से कार चलाते हैं और बंदूक की नाल से गोली निकालते हैं। विस्फोट करते हैं और स्मार्ट फोन के बटन से अनलॉक करके गेम खेलते हैं। टीवी में गंदी बात देखते हैं। मुझे तो पता भी नहीं भीम और क्या क्या खेलते हैं। किसी खतरनाक चैलेंज को पार करते हैं। हारते हैं रोते हैं। सिर फोड़ते हैं और फिर स्कूल में जाने लायक जब होते हैं तो जाकर दुष्कर्म भी कर जाते हैं।
मिलाजुलाकर हम यह कह सकते हैं कि बचपन में अपनाएं हथियारों को बच्चे अपनी चेतना में इस तरीके से संजों कर रखते हैं कि वे किसी भी हद तक जवानी के आग़ोश में उतार सकते हैं और उसके आधार और आड़ में किसी को भी चिल्ल्लाहट में तब्दील कर सकते हैं।
तो बच्चों का संस्कार और भावी पीढ़ियों के कर्णधार और सूत्रधार आप और हम यह क्यों नहीं सोच सकते कि आपके सोच में खिलौने स्मार्ट होने चाहिए या बच्चा स्मार्ट होना चाहिए। सोचिये और देखादेखी में लड़कियों को अगर गुड़ियाँ देने की हिम्मत रखते हैं तो लड़कों को भी गुड्डा देने की तो रख ही सकते हैं। बच्चा बच्चा को ही सीखा सकता है। हालांकि बहुत साथी हंसेंगे और लड़कियां भी जिद करेंगी कि हमें भी बंदूक ही चलाना है लड़का बनना है लेकिन आप उनकी हंसी को चुप करा सकते हैं। लड़कियां लड़कों सी तब नहीं बनेंगी जब उन्हें हथियार दे दिए जाएंगे उन्हें गालियां सिखाई जाएंगी, उन्हें बीयर और सिगरेट पकड़ा दिए जाएंगे और लेट नाईट पार्टी में शरीक होने के लिए कहा जायेगा। ये बराबरी नहीं है ये समाज का दूषित चेहरा है जो बराबरी के लिए लड़कों की गलत कदम को सही मानकर उनकी बराबरी करता देखा जाता है।
#प्रभात "कृष्ण"