Sunday 9 July 2017

मोहब्बत पड़ी है तुमको !!


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खूबसूरत नजारा और नजारे आसमां पर
सितारे भी मुझसे कुछ कह रहे हैं
कभी तुम पास आओ गले से लगा लूंगा
तुम्हारी ख्वाहिशें सब चुरा लूंगा
तुम्हारी जरूरत है हमको
मोहब्बत पड़ी है तुमको!!

अभी तक तुमने जो भी कुछ किया
मोहब्बत ने तुमको अंधा किया
तुम्हारी परवाह तुमको खुद की नही है
तो तुम्हें कैसे भरोसा वफ़ा क्या करेगा
तुम्हारी जरूरत है हमको
मोहब्बत पड़ी है तुमको!!

है चादर में लिपटी जहाँ है सारा
सूरज की बाहों में लिपटा किनारा
है काले मेघों का ऊपर सहारा
लड़े जा रहे हो आपस में, मैं हारा
तुम्हारी जरूरत है हमको
मोहब्बत पड़ी है तुमको!!

बहुतों ने किया है अंत रिश्तों का
तुमने भी जिया है सार जिंदगी का
यकीं न हो खुद पे तो भी संभलना
चौराहों पे आके तुम न भटकना
तुम्हारी जरूरत है हमको
मोहब्बत पड़ी है तुमको!!

-प्रभात

Monday 3 July 2017

काव्य संगम

यह बताते हुए अत्यंत प्रसन्नता हो रही है कि अभी आज ही सांझा काव्य संग्रह की मेरी दूसरी पुस्तक मुझे कोरियर से प्राप्त हुई। इसके लिए उदीप्त प्रकाशन का आभारी हूँ। मैं अपने सभी करीबी साथियों, बड़ों और परिवारजनों का दिल से सहयोग बनाएं रखने के लिए शुक्रिया अदा करता हूँ और इसके लिए उनका कृतग्य भी हूँ।

1july, 17











किताबों के सिवा

मत सोचो अब कि खुदा कोई पुरस्कार देने वाला है
किताबों के सिवा तुम्हारा कोई यार होने वाला है
हिम्मतें सदा रखता है जो सीने पर जोखिमों के साथ,
उसी के वास्ते हँसकर जिंदगी गुलजार होने वाला है।
मत सोचो अब कि सूखे में धान पैदा होने वाला है
बिना संभले अंधकार में तेरा मान होने वाला है
इंतजार करने के वक्त में करिए, रास्ते पे चलते हुए
फिर देखिए कैसे छूटा राही साथ पकड़ने वाला है।

-प्रभात

बिछड़े क्यों हो?

गगन तुम मायूस हो, चमन तुम उजड़े से हो
बताओ आखिर बेवजह मुझसे बिछड़े क्यों हो?
हृदय की तरंगों को गिन लिया था साँसों ने
व्यथित हो तो अब क्यों हो?
सरोवर है कमल तुम हो, इस मंजिल में साथ
तुम होकर भी गम में क्यों हो?
चहचहाती, चिल्लाती और शोर में तुम हो
फिर मुझसे रूठे क्यों हो?
फर्क पड़ता है आसमाँ को अगर एक बार
तुम न दिखो, अब छुपती क्यों हो?
उल्लास था जमाने में, जानते तुम हो मानते तुम हो
मंजिल भटक रही है अब मुझसे तुम दूर क्यों हो?

-प्रभात

क्या हुआ?

मैं बहते दरिया का पानी हूँ और तुम हवा तुम जिधर जाओगे, उधर हम चले जाएंगे।
जरूरी ये है कि तुम्हे लेकर किसे जाना है।

ये रातें और उसमें बिस्तर पर बैठ टकटकी लगाए
देखते तुम्हारी ओर
अक्सर उसकी आँखें टकरा जाती है और तुम्हें छूकर
लौट आती है फिर पूछते हो क्या हुआ?
ख्वाब बुनकर रात-दिन तुमसे पूछते-पूछते, कहते
कि तुम्हें क्या हुआ?
उसकी आँखों के भीतर का कालापन उसके दृष्ट को
धुँधला कर दिया जैसे बिना ज्योति के
तुम मौन हो, तुम हंस रही हो, तुम रो रही हो, तुम
जग रही हो, आखिर किसके लिए?
जिम्म्मेदार वो है फिर भी उसके हश्र को देख गली के
पास का कुत्ता गले लगा रहा है
इंसानियत हो या प्यार का राग अलापने वाला इंसान
मंज़िल पर तुम्हारे साथ चलना चाहता है
उसकी सोंच, उसका हौंसला, मकसद साफ है
फिर तुम्हें उसको लेकर संदेह है
अक्सर होता क्यों है, हो जब समझदार, दृढ़, भावुक
वो सब तुम समझ जानती भी हो
तो क्या ऐसा है जो तुमने उससे छुपा लिया, बताया नही
या चोट पहुँचाना मकसद नही समझा
संवाद नही करोगे तो क्या, विश्वास नही करोगे तो क्या
और सब करोगे तो भी क्या
वो भूल जाएगा अपने वजूद को, या बदल जाएगा
जो तुमसे न कहेगा बिन माध्यम के
हो सकता है दरिया बिना पानी के न बह सके, बिन हवा
न मुड़ सके
लेकिन दरिया था, दरिया रहेगा भी, बताना पड़ेगा कि
आखिर ये दरिया सूख क्यों गया
-प्रभात

स्वीकार करूँ और बढ़ जाऊं
पता नही शायद कितने
भावों का प्याला पीना है
है रुदन वही जहाँ प्रेम दिखे
है काँटे वही जहां फूल दिखे
है प्रेम वही जहां त्याग दिखे
है सत्य वही जहां विश्वास दिखे
मन को सींचा है कल्पना से
शायद मरकर जिंदा रहना है
इस अंधकार को उजाला देकर
कविता लिखना है
कितनी खुशियां है बातों में
पूछो वाणी से धोखा न देगा
कुछ व्यथा रही होगी जो
कविता बनकर निकली होगी
पर लिखना भी है जो भी
उसे प्रेयशी को अच्छा लगना है
इस अंधकार को उजाला देकर
कविता लिखना है
साँसे रूक जाती है बोलूं तो
आंखें कुछ कह न पाती है
ढिबरी अंदर बुझ सी जाती है
लेकर मुरझाए बीजों को
फिर से अंकुरित करना है
शायद न कहकर भी सब कह देना है
इस अंधकार को उजाला देकर
कविता लिखना है।
प्रभात


कविता लिखना है

इस अंधकार को उजाला देकर
कविता लिखना है
जीवन भर रोने वाले को
हंसकर जीना है
है मात्र नही चुनौती जो
स्वीकार करूँ और बढ़ जाऊं
पता नही शायद कितने
भावों का प्याला पीना है
है रुदन वही जहाँ प्रेम दिखे
है काँटे वही जहां फूल दिखे
है प्रेम वही जहां त्याग दिखे
है सत्य वही जहां विश्वास दिखे
मन को सींचा है कल्पना से
शायद मरकर जिंदा रहना है
इस अंधकार को उजाला देकर
कविता लिखना है
कितनी खुशियां है बातों में
पूछो वाणी से धोखा न देगा
कुछ व्यथा रही होगी जो
कविता बनकर निकली होगी
पर लिखना भी है जो भी
उसे प्रेयशी को अच्छा लगना है
इस अंधकार को उजाला देकर
कविता लिखना है
साँसे रूक जाती है बोलूं तो
आंखें कुछ कह न पाती है
ढिबरी अंदर बुझ सी जाती है
लेकर मुरझाए बीजों को
फिर से अंकुरित करना है
शायद न कहकर भी सब कह देना है
इस अंधकार को उजाला देकर
कविता लिखना है।

प्रभात

हाँ मैं प्रभात हूँ

मेरी दीदी ने कल रात को यह प्रकृति का अतुल्य और अद्दभुत दृश्य भेजा। कितना खूबसूरत अहसास होता है जब प्रकृति के अनुपम उपहार और उसके ताने बाने को देखते हैं और सोंचते है । जीने की कला और इनके रहने का बसेरा। जरा देखिए आप भी खुश हो जाएंगे। ये है मेरी बुलबुल और उसका तराना सुन भर लीजिये। आप कहेंगे कि ये दिन हमें भी याद आ गए।
एक कविता भी पढ़ते जाइये।
हाँ मैं प्रभात हूँ
तुमसे हर सुबह मिलता हूँ
थोड़ी देर बाद बिछुड़ता हूँ
फिर अगली सुबह ही मिलता हूँ
हाँ मैं प्रभात हूँ
बादलों में खो जाता हूँ
बारिशों में भीग जाता हूँ
सूरज के बिन अधूरा होता हूँ
और फिर काले सायों में छुपता हूँ
हाँ मैं प्रभात हूँ
कुछ चिड़ियों को बुलाता हूँ
उनके तराने को सुनता हूँ
नदियों से ताजगी पाता हूं
और फिर घोंसले बनवाता हूँ
हाँ मैं प्रभात हूँ
प्रभात
तस्वीर आभार: डॉ० प्रतिभा
स्थान: मेरे घर के आंगन का अमरूद का पेड़।

11 june, 17

तुम नारी हो

तुम नारी हो लेकिन अन्य नारियों से अलग। पता है तुम्हारा प्यार जब मेरे इनबॉक्स में ढेर सारे दिल लेकर आया था तो मेरा दिल इतना पिघल गया था कि मैं बदले में दिल का ढेर लगा दिया। यकीनन मुझे विश्वास तब भी नही था। वास्तव में तुमसे दिल लगाना शायद इतना आसान नही था इसलिए मैंने पहले तुम्हे परीक्षा के दौर से गुजारा। तुम परीक्षा के दौर से गुजरते गुजरते मुझे परीक्षा में दूसरों की तरह नकल करने वाला बनाकर बदनाम कर चली गयी। तुम्हारा झूठी गंभीर शैली, हाव-भाव और केयरिंग दृष्टि ने मुझ पर बस इसलिए प्रभाव डाला था क्योंकि मैं भी किसी प्यार का शिकार था और मुझे दर्द का पता था। मेरे इनोसेंट होने का इतना फायदा लिया कि तुम सरेआम 'उल्टा चोर कोतवाल को डांटे' वाले मुहावरे को अपनाते हुए देखे गए।
इस संसार मे प्यार का सच्चा नाटक करने वाला भी तुमसे कम ही योग्यता वाला इंसान होगा। तुमने मुझ पर मानो निशाना साध रखा था कि किसी एक उद्देश्य के साथ तुम आये और अपना काम निकाल कर पीछे हट तो गए साथ ही साथ मेरे दिलों दिमाग को नकारात्मक रूप से प्रभावित भी किया। तुमसे सच्चा इंसान शायद इस दुनिया मे पैदा नही हुआ होगा, इस तरह तुमने अपने झूठ होने की प्रामाणिकता को सिद्ध कर दिया था। धोखेबाज नही तुम्हें अपने आप को धोखा मिला था और फिर से अपने आप को ही धोखा दिया, शायद बदला लेने मुझसे आ गए थे, लेकिन वह भी तुम्हें तोड़ कर हर किसी से अलग ही करेगा। अच्छा किया अपनी अस्मिता और पहचान को मेरे सामने लाल गुलाब की की तरह लाकर अब तुमने उसके उल्टे अर्थ का यानी नफरतों के बयार को प्रकट कर दिया। अच्छा सुनों तुम सफल हो गए होंगे लेकिन तुम कभी माफ़ नही किये जाओगे क्योंकि तुम्ही केवल नारी नही हो । वह पत्थर भी है जिसे मै नारी मानता हूं और प्रेम का प्रतीक। वह कल्पना भी है जिस भाव से अक्सर मैं नारियों को देखा करता हूँ वह बहुत हद तक सच भी है....
प्रभात

वास्तविक होना

अक्सर मेरे ख्याल जब शब्द बनकर मुखरित हो रहे होते है तो मैं वास्तविक होता हूँ। जब यही शब्द श्रोता यानी कि जिसके संबंध में ख्यालात होते है, उन तक पहुंचता है तो वे मेरे बातों से ज्यादातर समय नकारात्मक रूप से ही प्रभावित होते दिखते है। ऐसा जिन जिन के साथ होता है वहां से मेरे सम्बन्ध टूट जाते है। मेरा आर्थिक नुकसान भी हो जाता है।
ऐसा जरूर है कि मैं अगर जरा भी वास्तविकता से दूर होकर बात करता हूँ तो मेरे संबंध ऐसे लोगों से हमेशा ही सकारात्मक रूप से चलता रहेगा। आर्थिक नुकसान भी नही होगा। मानसिक सहूलियत मिलती है।
परन्तु यह जानते हुए कि मुझे दिक्कतें होती है मैं वास्तविक बनकर ही जीना पसंद करता हूँ। मैं अपने आपको हर तरीके से तपन देकर कठोर बना लेता हूँ। यह परवाह किये बगैर कि मेरे साथ चलने वाला कोई आगे होगा या नही मैं अपने पैर को उसी दिशा में आगे चलने के लिए बढ़ाता हूँ जहाँ से रास्ता आसान हो या न हो मगर मंजिल तक पहुंचने का वास्तविक मार्ग ही अपनाना चाहता हूं। केवल इसलिए की मेरी आत्मा को संतुष्टि मिलती है।

जिंदगी के इस भागदौड़ में मैं फिर से अपने लिए बनी बनाई दीवार तोड़कर चुनौतीपूर्ण एक मजबूत नींव बना रहा हूँ ताकि अब दीवार खड़ी हो तो अपने ऊंचाई और अथक प्रयास का प्रमाण मिल सके। खुद की आत्मा को संतुष्टि मिल सके। खुश मैं रहूंगा तभी आपको भी खुश रख सकूंगा...

-प्रभात 

जीवन में गत्यात्मकता

बहुत दिनों बाद आज फेसबुक पर लिखने आया हूँ....खासा अभाव है उस सोंच कि जिससे कुछ अच्छा लिख सकूँ. मन स्थिर है....कलम बंधी सी है...मंजिल जो मुझे आगे जाते हुए देख रही थी वह मुझे आज व्याकुल होते हुए देख रही है...नदियाँ जब रुक जाएँ, बादल न बने, रास्ते जब बंद हो जाए तो पानी को भी घुटन होने लगती है और नदी-नदी नहीं रह जाती.
देखो न सुबह सूरज देखना बंद कर दिया है मैंने...हवा जैसे रुक सी गयी हो...जीने की स्टाईल बदल गयी है इसलिए अब घर की याद मेरे जेहन में पानी बनकर तैरने से लग गये.
ऐसा लगता है कि इस गर्मीं में अपनी बगिया में लगे हरे, पीले, लाल आम तोड़े अरसा हो गया...शायद ही कभी ऐसा हो जब लग्गी लेकर या फिर खुद ही बंदरों की भांति पेड़ पर चढ़कर माटे के झोझे के साथ कुछ आम तोड़ सकूँ...ललगुदिया वाला अमरुद तोड़कर अपनी गैया को खिला सकूँ...फिर से दादा जी के साथ जाकर वो विन्नु चाचा के दूकान की पापड खा सकूँ...अपने खलिहान में गजे पुआल पर उधम कूद मचा सकूँ...बचपन की तरफ भी घूम लिया कुछ तो नहीं मिला ...
बचपन से सुना करता था कि कलेक्टर बनना नहीं तो चपरासी बनोगे ....इन दोनों में से कुछ भी तो नही बना, लेकिन कुछ बनने के चक्कर में फेसबुकिया पोस्ट लिख-लिख कर मैं पहला ऐसा साहित्यिक आदमी बन गया जो सोशल वर्क करने के चक्कर में मीडिया का हाथ पकड़ लिया, प्रेम और रोमांस पर अपठित कविताये लिखने लगा ...जो कि न तो पहले पढ़े गये थे न ही बाद में पढ़े गये...सोशल वर्क की पढ़ाई नहीं की ;लेकिन सोशल साईट्स पर खूब पढ़ाई की...इतना कि पहले मैं प्रभात के नाम से जाना जाता था आज फेसबुक की वजह से...हालांकि 24*7 घंटे रिपोर्टर हूँ लेकिन किसी सैलरी वाली दुनिया का नही बल्कि अपने वाट्स एप की दुनिया में....

.प्रभात कृष्ण के रूप में आभासी दुनिया में निकल कर सामने आ गया हूँ.......अब जब मार्कशीट में प्रभात लिखकर दिखाता रहा ..अनुसन्धान की दुनिया में गोते लगाता रहा...अनुसन्धान की दुनिया की डिग्री नहीं मिली परन्तु उसकी डिग्री पर अनुसन्धान हो गया...कहीं किसी बड़े शोध पत्र में यह रिसर्च जगह नहीं ले सका लेकिन मेरे हृदय में यह छप सा गया है...इम्पैक्ट फैक्टर नेचर जर्नल का है... बस अंतर ये है कि ये मेरा नेचर है ....जो जर्नल से किसी कम नहीं है.
बातें इतनी सी है ....जीवन में गत्यात्मकता होनी चाहिए, शायद अब आ जाएँ...
-प्रभात

Saturday 1 July 2017

माँ की मोहब्बत

माँ की मोहब्बत आज दिख रही है 
फेसबुक पर माँ का नाम लिखकर।
तेवर उनके बदले है पोस्ट में लगता है
लेकिन माँ की याद पर कल कुछ नही लिखोगे...
अक्सर सवाल यही उठ जाते है??
क्यों मां दफन हो जाती है वक्त के साथ साथ??
दिल, दिमाग और बचपन की हिचकियों के साथ??
मां क्यों बंद हो जाती है किताबों में लिखने के बाद??
मां अक्सर नही दिखती घर से निकलने के बाद??
क्यों नही बैठी माँ चूल्हे से निकलकर हमारे पास??
मां अकेले बुड़बुड़ाती है अब भी उसी टूटी खाट से
क्यों नही सोंचते तब कि आखिर मां कहाँ है??
माँ बड़े काबिल हो गए है लोग आजकल
माँ तुम्हे भी लिख रहे है नकल कर चंद पंक्तियों में ..
कोई अहसास दूसरों की चुरा रहा है..
कोई अंदाज दूसरों की लगा रहा है..
कोई तुम्हें केवल मां कह रहा है..
माँ नकली पहचान बन गयी हो बस
शायद तुम किसी और की मां बन गयी हो...
इसलिए दूसरों की अहसास बन गयी हो
मां, अब लगता है ...
तुम मां केवल फ़ेसबुक पर हो गई है।

-प्रभात

आसमान की गोद में रोने लगे हैं....

सितारे खुद की चमक खोने लगे हैं
आसमान की गोद में रोने लगे हैं
मैं भी एक बचपन का सितारा था
अपने प्रियजनों को बहुत प्यारा था
पाकर प्यार अभिमान छा गया था
क्रूद्ध होकर भी शांत हो जाता था
स्नेह में उनके सामान्य हो जाता था
देखो बुझ गया दीपक घर का मेरे
वो पतंगे कोई और घर ढूढ़ने लगे है
अब प्रेम की लौ से बैर करने लगे है
सितारे खुद की चमक खोने लगे हैं
आसमान की गोद में रोने लगे हैं....

-प्रभात

जाने किस अंजाम पर पहुँच गया

 बेखबर होकर मंज़िल ढूंढता रहा रात भर, जाने किस अंजाम पर पहुंच गया
याद आने लगी महीनों बीतें दास्तां की, बिछुड़कर प्रेमिका के पास आ गया
किसी दिन मोहब्बत सजती रही होठों पर, गले मिला और बेचैन हो गया
आखों में नमी देखकर चाहत की, धुँधले से नज़ारे और उसमें मैं खो गया
इश्क़ के पैगाम भेजा उन्हें था, शायद दुबारा भेजने की तकल्लुफ न होगी
सुन लिया मोहब्बत के तराने सारे, अलापा बहुत फिर मैं गगन तले सो गया
बेखबर होकर मंज़िल ढूँढता रहा रात भर, जाने किस अंजाम पर पहुँच गया

-प्रभात