Monday 3 July 2017

क्या हुआ?

मैं बहते दरिया का पानी हूँ और तुम हवा तुम जिधर जाओगे, उधर हम चले जाएंगे।
जरूरी ये है कि तुम्हे लेकर किसे जाना है।

ये रातें और उसमें बिस्तर पर बैठ टकटकी लगाए
देखते तुम्हारी ओर
अक्सर उसकी आँखें टकरा जाती है और तुम्हें छूकर
लौट आती है फिर पूछते हो क्या हुआ?
ख्वाब बुनकर रात-दिन तुमसे पूछते-पूछते, कहते
कि तुम्हें क्या हुआ?
उसकी आँखों के भीतर का कालापन उसके दृष्ट को
धुँधला कर दिया जैसे बिना ज्योति के
तुम मौन हो, तुम हंस रही हो, तुम रो रही हो, तुम
जग रही हो, आखिर किसके लिए?
जिम्म्मेदार वो है फिर भी उसके हश्र को देख गली के
पास का कुत्ता गले लगा रहा है
इंसानियत हो या प्यार का राग अलापने वाला इंसान
मंज़िल पर तुम्हारे साथ चलना चाहता है
उसकी सोंच, उसका हौंसला, मकसद साफ है
फिर तुम्हें उसको लेकर संदेह है
अक्सर होता क्यों है, हो जब समझदार, दृढ़, भावुक
वो सब तुम समझ जानती भी हो
तो क्या ऐसा है जो तुमने उससे छुपा लिया, बताया नही
या चोट पहुँचाना मकसद नही समझा
संवाद नही करोगे तो क्या, विश्वास नही करोगे तो क्या
और सब करोगे तो भी क्या
वो भूल जाएगा अपने वजूद को, या बदल जाएगा
जो तुमसे न कहेगा बिन माध्यम के
हो सकता है दरिया बिना पानी के न बह सके, बिन हवा
न मुड़ सके
लेकिन दरिया था, दरिया रहेगा भी, बताना पड़ेगा कि
आखिर ये दरिया सूख क्यों गया
-प्रभात

स्वीकार करूँ और बढ़ जाऊं
पता नही शायद कितने
भावों का प्याला पीना है
है रुदन वही जहाँ प्रेम दिखे
है काँटे वही जहां फूल दिखे
है प्रेम वही जहां त्याग दिखे
है सत्य वही जहां विश्वास दिखे
मन को सींचा है कल्पना से
शायद मरकर जिंदा रहना है
इस अंधकार को उजाला देकर
कविता लिखना है
कितनी खुशियां है बातों में
पूछो वाणी से धोखा न देगा
कुछ व्यथा रही होगी जो
कविता बनकर निकली होगी
पर लिखना भी है जो भी
उसे प्रेयशी को अच्छा लगना है
इस अंधकार को उजाला देकर
कविता लिखना है
साँसे रूक जाती है बोलूं तो
आंखें कुछ कह न पाती है
ढिबरी अंदर बुझ सी जाती है
लेकर मुरझाए बीजों को
फिर से अंकुरित करना है
शायद न कहकर भी सब कह देना है
इस अंधकार को उजाला देकर
कविता लिखना है।
प्रभात


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