Thursday 27 June 2013

पुरानी परम्परा के चक्र अब यहीं रुक गए!

जो कुँए पानी रखे थे, वे अब इसको खो दिए
पुरानी परम्परा के चक्र अब यहीं रुक गए!
उन  बैलों की घंटी से जागना तब होता था
आज उन्ही के रोनें की फिक्र नहीं करते है
खेत हरे भरे अब घासों से लगते हैं
अब उनकी मिट्टी  ने अपने गुण छोड़ दिए
आधुनिकता की परिभाषा ने मेरे गाँव बदल दिए!

सड़कों  से दूर रहकर झोपड़ी में सोते थे
आज की एसी पंखों से दूर कहीं होते थे
आवाजें नैसर्गिक जीवों के होते थे
अब तो हर सड़कों ने गाँव गाँव जोड़ दिए
पशु-पक्षी दूर हुए मोटरगाड़ी का नाम दिखे
अब शहरों की परिभाषा ने मेरे गाँव जोड़ लिए!

पेड़ों की टहनियों में घंटों सुस्ताते थे
वे फलों के सतरंगी रंगों में दिखते थे
हल्की हवा और फुहारों से धो उठते थे
अब पेड़ काले कृमि व रसायन से नहाते हैं
हरे भरे पेड़ों की जगह अब घर की दीवार लिए
अब पेड़ों की परिभाषा नें खम्भे को स्थान दिए!

गाँव के सभ्य समाज में दिए जब जलते थे
फसलों के कटनें पर लोकगीत जब सुनते थे
पैरों की खनखन से शाम का समां जब बंधता था
सुसंस्कृति बनाने का सपना तब होता था
अब आतिशबाजी की आवाजों पर पैरों के रुख मोड़ दिए
लोकगीतों की धुन को पैसों से बेच दिए
अब जीनें की परिभाषा नें घर के बर्तन अलग किये 
जीवन के मूल्यों को जब चाहे बेच दिए !

                                        "प्रभात"