Tuesday 26 July 2016

चाहे छूट गए हो रिश्ते, चाहे रूठ गए हो प्यारे

चाहे छूट गए हो रिश्ते, चाहे रूठ गए हो प्यारे
 
गूगल से साभार 
चाहे छूट गए हो रिश्ते, चाहे रूठ गए हो प्यारे
मत बनना इनकी खातिर कैसे भी हत्यारे
खूब संजोये होंगे सपने, खूब मिले होंगे जिज्ञासु
मंजिल पाने की कोशिश में खूब बहाये होंगे आंसू
सपनें टूट गये होंगे, होगा न जीवन में विश्वास
न करना फिर भी अकेले होने का अहसास
चाहे हिम्मत हार गया हो, चाहे हो सबसे हारे 
मत बनना इनकी खातिर कैसे भी हत्यारे....
-प्रभात

भाग- निर्धारित नहीं

आज कॉलेज से आया ही था कि अचानक ही मुझे बताया गया कि आपको डीजीपी लखनऊ के यहाँ मिलने जाना होगा जनवरी का पहला हफ्ता था काफी ठण्ड पड़ रही थी। फिर भी ऐसी घड़ी में ठण्ड तो दूर भाग गया था। मेरी जिंदगी में ऐसे कई मौके आये जब किसी न किसी पुलिस अधिकारी से मिलने जाना पड़ा है। ये सौभाग्य नहीं है यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा । इस बार तो मन में सवाल ही उठ रहे थे क़ि आखिर क्या तरकीब है, इसके बावजूद कि फर्जी मुकदमें में चार्ज शीट लग गयी हो और सारी पुलिस हमारे जिले की फर्जी पर फर्जी चार्ज लगाने के लिए बैठी हो , ऐसे समय जब कोई सिपाही तो दूर क्लर्क भी यह बकता दिखाई दे रहा हो कि करो आरटीआई और अब जेल जाओगे..., जिससे यह मुसीबत टल सके। कल ही गैर जमानती वारंट का पता भी चला था जबकि लगे हुए 10 दिन बीत चुके थे। ऐसा इसलिए था क्योंकि सारे काम छुपाये जा रहे थे, गिरफ्तारी जो होना था। दरअसल पुलिस गिरफ्तारी से बचना भी था और यह भी पता लगाना कि पुलिस कर क्या रही है, अकेले ही जब ऐसे समय में कोई न रिश्तेदार साथ हो न अपने सगे तो यह काम काफी कठिन हो जाता है। मैं करता भी क्या काम यही था न्याय की भीख मांगने दर दर भटकना और बिके पुलिस अधिकारियों की गाली खाना। पिताजी तो हताश बिलकुल भी नहीं थे पता नहीं क्यों ऐसा लगा जबकि उनके जेल जाने के अलावा कोई और चारा नहीं दिखाई दे रहा था। मैं और मेरा परिवार एक दूसरे को सांत्वना ही दे सकते थे।
डीजीपी लखनऊ के यहाँ से ही कुछ हो सकता था मन में कई सवाल उठ रहे थे आखिर कोई दोस्त ही मेरी सहायता क्यों नहीं कर देता। मैं सोंच रहा था कि अगर मैं कुछ अपने पिता के लिए नहीं कर सका तो फिर मेरे रहने का क्या वजूद? क्या इतना नहीं कर सकता किसी पत्रकार से मिलकर ही मीडिया में यह बात पंहुचा दूँ। किसी से बात करता तो फोन नहीं उठाता था चाहे वह कितना भी सगा न हो । हाँ जो अपने दोस्त होने की मुझे दुहाई दे रहे थे वे मेरा हालचाल लेने के लिए तैयार नहीं थे। घर में मां अकेले थी । उनका साथ देने वाला कोई नहीं था । अकेले रो रो कर दिन कटते थे । मन में तो बस यही आ रहा था कि कल जाकर सुबह सारा दुखड़ा पुलिस महानिदेशक के यहाँ ही पहुंचकर सुनाऊंगा। अगर मेरी नहीं सुने तो क्या होगा? होगा क्या फिल्मों के डायलॉग ही चाहे दूसरों को लगे पर हकीकत के लिए अपनी हर बात पूरे सच्चाई के साथ कहूंगा...अगर भ्रष्ट वह भी हुआ तो ? बहुत करेगा तो मुझे भी फर्जी केस में जेल भेज देगा...क्या पता ईमानदार ही मिल जाए.. सोंच रहा था मुझे एक मिनट के लिए कोई कलेक्टर ही बना दे मैं सबकी वर्दी उतरवा दूंगा। जो जो भ्रष्ट है और जिस जिस ने मुझे बेइज्जत किया अब तक उसे तो मैं सीधे ऊपर ही पहुंचा दूंगा...मगर कैसे कलेक्टर से अच्छा रिवाल्वर हाथ में लेना ही अंतिम कदम हो सकता है। अंतिम रूप से सवाल जवाब की इस प्रक्रिया में मैं आतंकवाद ही खुद को मान लेना चाहता था। पर जिंदगी में हार ही मानना पड़ेगा अपने आप से क्योंकि घर वाले मुझे जेल में देखकर नहीं जी सकेंगे । यह एक ऐसी ज्वाला थी जो सामने वाले को उसका उत्तरदायित्व बातों से ही समझाने के लिए पर्याप्त थी । बस फिर भी एक कोई तो ऐसा होना चाहिए था जो मेरे दिल्ली से लखनऊ तक के सफर में केवल साथ दे सकता था । ऐसा सोंच रहा था।
डीजीपी को संबोधित एप्लीकेशन तैयार किया और दोस्तों से सहायता मांगने को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कोशिश करने लगा की शायद मेरे साथ इस भागमभाग की जिंदगी में कोई साथ चलने को तैयार हो जाये। मैं तो भाड़े का किराया उसके लिए सारी सुख सुविधा देने के लिए तैयार था। बस जरुरत थी यात्रा साथी की जो मुझे मनोबल दे सकता था। और मेरे विचारों में उल्लास भर सकता था । सन्योग से अप्रत्यक्ष रूप से कहने पर तो अप्रत्यक्ष मशीनरी से कोई जवाब किसी का नहीं मिला । आजकल अप्रत्यक्ष मशीनरी का इस्तेमाल केवल लगता है हाय और गुड नाइट और अधिकतम डियर बाय तक के लिए ही होता है । ऐसा मान लेना ही पड़ा , दोस्तों को मैंने फिर भी अपने विचारों से ही उन्हें सफल मान लिया, क्योंकि शायद वे सही है अगर हम उनकी जगह पर ऐसे व्यस्त जिंदगी जीते तो हम उनके यात्रा साथी नहीं बन पाते । बस इसी सकारात्मक भाव से रिश्ते जोड़ने की कोशिश करता रहता हूँ मगर निराशा कभी कभी आ ही जाती है जिसका हल मैं कर लेता हूँ खुद को जिम्मेदार मानकर।
खैर एक कनिष्ट सहायक और सबसे अच्छे दोस्त मन के सच्चे मित्र तैयार हो ही गए और अब शाम के 6 बज चुके थे ऊपर की सारी प्रक्रिया मात्र एक घंटे की ही थी मतलब लखनऊ जाने का विचार और इस तरीके की बताकही। सुबह अगले दिन समय से पहुँचने के लिए मेरे पास केवल एक ही ट्रेन उपयुक्त थी वह लखनऊ मेल ।और वैसे भी हमारे रुट की सारी रेलगाड़ियां देर हो ही रही थी। भारतीय रेलवे तो ऐसे समय जब कोहरा केवल नाम का होता था तो भी 6 घंटे देरी से ही चलने का अनाउंस किया करती है। टिकेट था तो नहीं । मिल जाता तो शायद उसे मनचाहा राशि चूका ही देते । मगर ये तो होता इस भय की बीमारी में बीमार होने से बच तो जाता । मैं अपने कमरे से गर्म कपडे लेकर एक बैग लटकाये और फोन लिए निकल चुका था मगर लेट भी था। पर पकड़नी थी हम दोनों मतलब मुझे व् मेरे यात्रा साथी को साथ में ही वह ट्रेन उनसे मैंने कहा भाई कि आपके पास विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन पास है और मैं दूर हूँ तो आप पहले मेरे कमरे से निकले अपने कमरे पर सामान लेने और मैं यहाँ से निकलता हूँ। संयोग से मैं सही टाइम पर लगभग अर्थात भारतीय लोगों के अनुसार पहुच तो जाता वही स्टेशन पर भाग कर नयी दिल्ली से । मगर अगर भागता तो । तब तक हाफते हुए जनवरी में वह और मैं एक साथ मिलते है। नयी दिल्ली मेट्रो स्टेशन बस अब ध्यान था केवल क़ि लखनऊ मेल पकड़नी है चाहे जैसे भी। पसीने तो पोछने का समय था ही नहीं । घड़ी में 3 मिनट बचा था लगा क़ि पहुच जायँगे वैसे भी ट्रेन कितना भी समय से चले तो भी 2 या 3 मिनट देरी से ही चलेगी। इसी विचार में हम बिना टिकट ही बैठने के लिए स्टेशन के लिए रवाना हुये। भागे मगर सामने बैग डालने की अंधाधुंध चेकिंग को क्रॉस करते हुए सीधे पहले प्लेटफॉर्म पर पहुचे देखा तो सामने ही लुखनऊ मेल रवाना हो रही थी और जब तक सोंचते क़ि बैठे वह रफ़्तार पकड़ चुकी थी।

ट्रेन तो छूट गयी मगर लखनऊ पहुंचने का आत्मविश्वास कायम था । जबकि यह छूटने वाली ट्रेन उस रुट पर जाने के लिए अंतिम ट्रेन थी दिल्ली से जाने के लिए। एक ट्रेन और थी मगर लखनऊ ऐसी स्पेशल उसे केवल 11 बजे रात को जाने के लिए दिखाया जाता है ऑनलाइन मगर ऑफलाइन कभी जाते हुए देखा नहीं । फिर भी इसमें भी ट्राई किया ही जा सकता है ऐसा सोंचकर थोड़ा पसीना पोंछते हुए पूछताछ काउंटर की और हम दोनों प्रस्थान करने लगते है...... कहानी आगे और पीछे दोनों तरफ है मगर आगे की कहानी के लिए साथ बने रहिएगा आज के लिए बस इतना ही !
प्रभात

Tuesday 19 July 2016

पहाड़ियों पर खेलना चाहता हूँ

पहाड़ियों पर खेलना चाहता हूँ,
नदियों में तैरना भी,


क्योंकि नही देखा ऊंची पहाड़ियां 
और अनुभव नहीं तैरने का 
देखा है तैरते बच्चो को
सरयू के बीचोबीच
डूब डूबकर सिक्के निकालते
एक फटी कमीज में 
अपनी जिंदगी गुजारा करते हुए
मुर्दे जलाते हुए श्मसान घाट पर
उन्हें गाते हुए।
अक्सर देखता हूँ उन्हें
पहाड़ों पर जो तोड़ते है पत्थर 
और बनाते है घोसले की तरह घर
ढाबों पर काम करते हुए
उन्हें नहीं फ़िक्र
बारिश की बूंदों की 
न फ़िक्र सरकारी लाभों की
स्कूल जाने की बिलकुल नहीं
बेवजह मुस्कराने और रोने की आदत नहीं
मंज़िल पाने की फ़िक्र हो या न हो
वे कहते नहीं कभी
पहाड़ियों पर खेलना चाहता हूँ 
और नदियों में तैरना भी
क्योंकि वे कहते नहीं करते है।

-प्रभात

 

Thursday 14 July 2016

प्रश्न बनकर रह गया हमारा जीवन

प्रश्न बनकर रह गया हमारा जीवन  

-From google
जब टूट गये थे तार हमारे
रिश्तों पर संवाद हमारे
भीग गया था प्रेम पत्र
ख्वाबों में दूरी दिखती थी
था आसमान में एक तारा फिर भी  
प्रेयशी को प्यारा लगता था  
रात चांदनी में, वह उसके   
रोज उजाला लेकर आता
राहों में उसके दिखता था
बारिश की बूंदों में वह बिखरा
गर्मी के मौसम में वह एक तारा
खोकर भी वह उभरा था
अचानक बारिश में ही आज प्रियतमा
मेरी आँखों में समा गयी
निःशब्द हुआ जब तारा वह
देखा अपनी प्रेयशी को
न उसके जज्बात मिले उससे
न भावों की उसके बरसात दिखी
चली गयी अब वह दूर कही
लगता है, नहीं है प्रेम की डोर बंधी  
फिर छुप गया मैं एक तारा बन वही
बरसात में और विरह के आकाश में
प्रश्न बनकर रह गया हमारा जीवन  
क्यों नहीं हो गया प्रकाशमय .................
-प्रभात 

Tuesday 5 July 2016

अरे वो छोटू

अरे वो छोटू 
-Google
अरे वो छोटू गोलगप्पे देना
सुनता नहीं क्या
मांगने वाला भी तो लड़का था
बिलकुल गोलगप्पा सा, बौना, मोटा
अच्छे खानदान का लगता था
कार से उतरा था
छोटू तो गोलगप्पा ही दे सकता था
पहले देखा सामने,
बड़े प्रेम से आँखों से निहारा
शायद उसे गोलगप्पे से प्रेम था
गोलगप्पा से क्योकि 
गोलगप्पा था तो गोरा और ऊपर से चश्मा
दे दिया जल्दी है गोलगप्पा
बोला साहेब कैसी लगी 
उलटे जवाब आया, थोड़ी मिर्च कम डाल
सभ्यता किसमें है छोटू में न
जिसने पढायी नहीं की है।
और गोलगप्पे ने बताना चाहा
कुछ कहकर
अरे 'फाइव हंड्रेड का चेंज होगा छोटू'
उसने कहा मतलब फफिफ्टी का 
वो तो नाही साहेब
गोलगप्पे की ये शिक्षा किस काम की
केवल साहेब कहलवाने की
छोटू के पास संस्कार है और
थोड़ी मेहनत, थोड़ा हिसाब
और शिक्षा गोलगप्पे के पास
काश दोनों ही किसी को मिल जाती 
हमदर्दी है मेरी, छोटू को मिले
अगर छोटू पाये तो शायद खिल जाए भारत
और अगर किस्मत गोलगप्पे के पास हो जाये
तो भारत के हाल यही रहेंगे जैसे है
विकासशील भी नहीं कहलायेंगे
जैसे अब है ये हाल और 
गोलगप्पे दौलत पर खरीदते जाएंगे
घर, जमीन, स्कूल, इंसान, और एक दिन
देश बेच देंगे!!!!
-प्रभात



माँ मुझे गोंद में फिर आना है

माँ मुझे गोंद में फिर आना है
-Google
माँ मुझे गोंद में फिर आना है
बारिश से मुझे बचा लो
गोदी में अचरे से छुपा लो
आँखों में कजरा लगा दो
सुबह मुझे स्नान करा दो
पढ़के स्कूल से थके आना है 
माँ मुझे
★★★
डांट मिली तो दुलरा दो
चम्पक दे मन बहला दो
शाम हुयी तो दूध पिला दो
चांदनी रात में कथा सुना दो 
खिलौने पाने की जिद करना है 
माँ मुझे
★★★
जो मैं खाऊं वही बना दो 
बात बात में मुझे हंसा दो 
रोते हुए मुझे बहला दो
सरसों से लेपन कर दो
भूत न आये छुप जाना है
माँ मुझे
★★★
-प्रभात


मैं खुश हूँ अपने जीवन से

मैं खुश हूँ अपने जीवन से


मैं खुश हूँ अपने जीवन से
तुम कहते हो कुछ ऐसे
जैसे मैं परेशान हूँ।
मैंने जो कुछ किया पिछले वर्षों में 
उनका रिकॉर्ड मांगते तुम हो
पर मैं उनमें से हूँ 
जिनका जवाब है 'कुछ नहीं'
और फिर तुम खुश हो जाते हो।
सच बताऊँ मैं जो हूँ,
उसका रिकॉर्ड दिखाने को नहीं है
तुम्हे, इतना जरूर है
ईश्वर ने हमेशा मुझे देखा है।
इसलिए मैं विचलित नहीं हुआ कभी
आपाधापी के दिनों में,
अच्छे दिनों से भी,
कुछ तुम्हारी बातों से,
जिसने मेरा अपमान किया।
मैं रोया कई बार हूँ,
मगर झुका कभी नहीं तुम्हारे सामने।
नसीब मेरी दुःख के ,
या असफलताएं मुझे प्रसन्न करती है। 
मैं अमीर नहीं हूँ,
तो क्या ?मैं जी रहा हूँ।
सब कुछ लेकर ही,
कुछ भी तो कमी नहीं है,
उदास दिनों को अब झेल सकता हूँ,
पहाड़ भी मैं काट सकता हूँ,
बाधाएं चाहे जैसी हो,
मैं पार पा सकता हूँ।
सही गलत की परख कर,
निर्णय ले सकता हूँ,
और अन्याय से अकेले लड़ सकता हूँ।
तुमसे मैं हर चीज़ में आगे हूँ,
इंसानियत के नाम पर,
जज्बातों के नाम पर,
मैं भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ।
अकेले ही काफी हूँ।
कुछ तुम्हारी गलतफहमियां है.....
मुझे सादगी ही पसंद है,
मैं रंगीन नहीं बनना चाहता।
मुझे सामान्य जीवन पसंद है,
मैं अमीर नहीं बनना चाहता।
मुझे आत्मनिर्भर बनना है,
मैं नौकर नहीं बनना चाहता।
मुझे मेरा रास्ता पता है,
मैं तुमसे अहसान नहीं लेना चाहता।
और मुझे सच बोलना पसंद है,
मैं इसलिए कहीं लिखता हूँ,
और बिना किसी की परवाह किये 
सामने ही कहता हूँ ।
पता है अच्छा नहीं लगता इस दुनिया को,
सच और मेरे त्याग की कहानी,
पागलपन उनके शब्दों में
पर ठुकराया तुमने ही तो है हर जगह से,
तभी मैं इस लायक बना हूँ,
कि मैं जाते जाते कह सकूँ,
मैं खुश हूँ अपने जीवन से।
-प्रभात

Sunday 3 July 2016

भाग- अभी निर्धारित नही

अपने शहर में उजाला खत्म होने वाला था, बारिश होने लगी थी हलकी सी और चाँद दिखने लगा था। मैं थाना डुमरियागंज से कांपते हुए ठण्ड मौसम में निकला था। एक तो बारिश की कपकपी और दूसरा चिंता इस बात की कि क्या मेरे निरपराध पिताजी को इतने संगीन रेप के अपराध से निकलवाया जा सकता है। थाने के दीवान जी पेट फुला कर और मूंछ फैला कर मुझे झूठी आश्वाशन दे ही रहे थे और मैं भी उन्हें भगवान मान कर प्रसाद चढाने के लिए बेताब था। मैं तो प्रसाद चढ़ा कर ही खुश कर सकता था इन्हें। मैं भरे बाजार में बिक सकता था अपने पिता जी के लिए। पर कोई मोल लगाने के लिए तैयार होता दिख तो नहीं रहा था। इधर अपने दिल्ली के शोध वाले काम से फुरसत नहीं। मेरे घर में मेरी माँ रोटियां सेंकने के लायक बची ही न थी। वो चिंता में डूबी रह रह के बस पिताजी के घर पर आने के सपने देखा करती रहती।
माँ; मेरे और मेरी दीदी डॉ प्रतिभा के छूटे आश्वाशन से कहाँ खुश रहने वाली थी। माँ तो बस अपने पास किसी को बैठा देखना चाहती थी जो बैठ कर उनकी चिंता का भागी बन सकता था। परिवार में एक छोटे भाई के अलावा कोई था भी नहीं जो मदद कर सकता वह भी क्या ही करता मेरे साथ ही दिल्ली में रहता था और अभी भी दिल्ली ही था । संयोग था कि इस बार मेरी दीदी मेरे साथ थी और हम दोनों बस माँ को ढांढस बधाने को बचे थे। मेरे पिताजी से बात होने को तो चार महीने से ज्यादे हो चुके थे जब सामने मिलकर बात हुयी हो, फोन पर बात होने का सवाल ही नहीं क्योंकि पिताजी रेप के फर्जी केस में गैर जमानती अभियुक्त बना दिए गए थे। फिर भी हम पुलिस और समाज से अकेले लड़ने के लिए काफी थे, उस पुलिस से जो अपने रिपोर्ट इस नतीजे पर पहुँचा सकी थी कि मेरे पिताजी सचमुच अपराधी है। बिना किसी सबूत के, बात तो कुछ होने का सवाल ही नहीं था।
हाँ तो दीवान जी से मेरी मुलाकात के बाद अपने शहर में जब वापसी हुयी थी तो उस मुलाकात में मेरी दीदी भी साथ ही थी परंतु उन्हें मैंने उस वक्त सामने आने न दिया था। बात हो जाने तक वह क्षेत्राधिकारी के ऑफिस से 2 किलोमीटर दूर ही बाजार में छुप कर मेरे आने का इन्तजार करती रही थी। मेरे शहर से मेरा घर मात्र 20 किलोमीटर की दूरी पर है और जहाँ गए थे वो मात्र 50 किलोमीटर की दूरी पर परंतु मेरे शहर बस्ती से। हम लोग दोपहर में घर से चले थे और शाम को बस से अपने शहर बस्ती उतरे थे। बस में कुछ पैसे भी साथ में लिए हम लोग खुसर पुसर किये जा रहे थे डर भी लग रहा था कहीं किसी ने रास्ते में छीन लिया तो क्या होगा। मगर सही सलामत अपने शहर तक पहुच गए तो जान में जान आयी। दीदी ने पहुँचते ही घबरा कर कहा अब क्या करोगे इतनी देर हों चुकी और तुमने लेट न किया होता तो हम घर पर पहुँच गए होते। अब तो कोई ऑटो भी नहीं मिलेगा। मिलेगा भी तो इतने पैसे कहाँ से देंगे 500 रूपये तो कम से कम लेता सुनसान रास्ते से होकर घर तक पहुंचने के। मैं अगर ऑटो कर भी लेता तो मेरे साथ दीदी, मतलब हम दो होते और ऑटों के साथ भी दो तो होते ही!
कुछ समझ नहीं आ रहा घर पंहुचा कैसे जाए। मैं पहले जब भी रेल से आया था मुझे कोई न कोई ले जाने को तैयार हो जाता ही था। कभी घर वहां से 400 रूपये में भी गया था और कभी 40 रूपये में भी । जब सवारी भर जाती है और ऑटो इंतजार करता है गोरखपुर जाने वाले इंटरसिटी का तो वह 8 बजे का समय होता था और उस सूने कचहरी बस्ती से सवारी 20 रूपये में बैठ जाती थी। आज तो 8 बजे के बाद का समय था। मैंने कई ऑटो को इशारा किया और रोका। कोई चलने को क्या रोकने भर को तैयार नहीं था। एकाएक दीदी के पास एक ऑटो वाला रुका और कुछ पूछने लगा पिताजी के बारे में । मेरे दीदी को जानने वाले बहुत लोग है मेरी घर या उस शहर में उतनी जानकारी किसी से नहीं। दीदी ने उस शख्स से बात किया और बताया की हाँ पिताजी ठीक है। मुझे लगा कोई जानने वाला है मैने जानना चाहा था की ऑटो वाले से बोलो चल ले । उन्होंने मुस्काराते हुए कहा अरे ये पिताजी की तरह ही सताए गए लोगों में से ही एक है और अब इनकी स्थिति ने इन्हें ऑटो वाला बना दिया है ये ले नहीं जाएंगे बस हाल चाल पूछ रहे थे।ऐसे समय जब पुलिस की पुलिस पूरी खिलाफत में उतरी हो और पिताजी की तलाश कर रही हो ऐसी दशा में मैं चाहता था की बोलने की कमान मेरे पास हो क्योंकि भोलेपन में किसी के द्वारा किसी से बात हो जाने पर दिया गया उत्तर मुसीबत का कारण बन सकता था। मैंने कहा दीदी रहने दो उन्हें जाने दो, हमें घर जाना है किसी से बात नहीं करना।
थोड़ी देर में एक शख्स पागल सा कहता है दीदी के पास आकर, और पिताजी कैसे है। फिर सहम गया ये जानना क्या चाहते है, मैंने जान्ने की इच्छा जताई अब ये महाशय कौन हैं। दीदी कहती है, अरे जानती तो मैं भी नहीं पर ये परिचय दे रहा है जैसा जानने वाला ही है उसे भी जाना है घर की और ही वही आस पास का रहने वाला है।अपने को कोई यादव बताया और कहाँ अरे भईया आप क्या जानते हो डॉक्टर साहब से बोलना बता तुरंत बता देंगे क़ि मैं कौन हूँ अच्छे अच्छे लोगों से मेरा सम्बन्ध है इतना कहकर जैसे ही वह दुबारा यह बात झूमते हुए कहा मुझे। समझ आ गया कि कोई पियक्कड़ तो है ही बाक़ी का पता नहीं। 9 बजने को हो रहे थे और कह रहा था मैं भी यही शहर में काम करता हूँ डेली आता जाता हूँ घर क्या ऑटो रिज़र्व करोगे अभी बस मिल जायेगी चल लेना साथ। मैंने सोंचा कि ये तो सही कह रहा है क्योंकि जब भी मैं गया हूँ घर अपने शहर से मुझे भी किस्मत से कोई न कोई गाड़ी घर पहुंचा ही दिया करती थी। आज भी मिल ही जायेगी। थोड़ी देर इंतज़ार करने के बाद हम फिर हताश होकर ऑटो लेने के लिए कही और दूर जाकर बस अड्डे की सोंचने लगे थे। बस अड्डा कचहरी बस्ती से 4 से 5 किलोमीटर की दूरी पर है। अब उस शराबी आत्मा से भी पीछा छुटाना था। इसलिए अब थोड़ी दूर जाकर खड़े हुए उसे पीछे मुड़ कर देखा तो लगा वो तो जा चूका था ऐसा लगा। थोडा अच्छा लगा था। थोड़ी ही देर में एक स्कूल की बस आकर रुकी कही चलना है तो आ जाओ। हम भी इसी इंतज़ार में थे ही पर बस में बैठनें से पहले दिल्ली का गैंग रेप काण्ड ध्यान गया । परंतु हिम्मत जुटाकर उस बस में चढ़ने लगे देखा कि ड्राईवर, कंडक्टर के अलावा कोई एक आदमी और बैठा था। थोड़ी देर बाद उस आदमी ने कहा देखा मिल गया मैंने कहा था आप लोग भी समय से पहुँच जायेंगे और पैसे भी बच गए। मैंने कहा कही बीच में उतार दिया और न ले गया तो। वह आदमी झूमते हुए कहा, अरे बुजरी ले काहे नहीं जायगी ले जाएगा इसका बाप भी, का कहत थया भैया।मैंने हाँ में हाँ भर दिया सहम कर अब तो बैठ ही गया था दीदी को साथ लेकर। और फिर वह व्यक्ति कुछ कहने ही वाला था क़ि तब जाकर मैंने दीदी से धीरे से कान में कहा, अरे ये तो वही शराबी है इसमें भी साथ मिल गया।हाँ इसे भी वही जाना है कह रहा है पिताजी मुझे अच्छे से जानते है यादव हूँ बता देना बस।मैंने कहाँ चलो ठीक है। पर जो कुछ हो रहा था, सब भय का कारण ही बनते जा रहे थे।
कुछ दूर बस चली ही होगी 2 किलोमीटर और एक ट्रक को देखकर रोक दिया। ड्राईवर कुछ कहता क़ि हम और दर गए थे। शराबी व्यक्ति ने भी कहा आओ भईया ये कह रहे है कि ट्रक में बैठ जाओ सही रहेगा और कौई ले भी नहीं जाएगा । मैं आगे पीछे देखा रात में और कोई चिराग भी नहीं दिखा जो मुझे घर की तरफ जाने के लिए रोशनी दिखाता अब तो फिर हिम्मत बाँध कर ट्रक में बैठना था। अब मैं उस मिलनसार हुए आदमी से जानना चाहता था की है कौन आप। मैंने पुछा अच्छा ये बताइए महाशय आप है कौन । फिर उसने कहा मैं भी घर की ऒर चलूँगा और फला यादव हूँ बैठो इसी ट्रक में आओ चढ़ जाओ। मैं चढ़ गया पहले देखा कि ट्रक में कोई और छुपा तो नहीं फिर जब कोई ड्राईवर और उस शराबी के अलावा कोई नहीं दिखा तब जाकर थोड़ी जान में जान आया। दीदी को अब चढ़ाना था।उन्हें ट्रक में तो पहली बार चढ़ने का अवसर मिला था ऊँचा सीट होने की वजह से वह शराबी उन्हें चढाने को हाथ लपकाता इससे पहले मैंने हाथ पकड़ कर बैठा लिया उन्हें अपने बगल और उस शराबी के बिलकुल उल्टी तरफ। मैं अपनी हिम्मत को बढ़ा कर सवाल पर सवाल करने लगा उस शराबी से भईया अच्छा आप यहाँ कहाँ काम करते हो और कहा। घर है। वह तो चुप हो नहीं रहा था और मैं बस अपने उत्तर निकलवाने की फिराक में पूछता जाता और थोड़ी देर बाद उसे केवल हँसता और उस हंसी का और बक बक का कारण उसकी शराब को जानकर उससे कम बात करने का सोंचा और उसकी हाँ में हाँ बिना कुछ सुने उत्तर दिए जाता रहा उसके और मेरे प्रसंग को देख दीदी डरकर भी हंसती रही मन ही मन। क्योंकि जो भी कहता है मैं "हाँ ये तो है" ऐसे कहकर जवाब दे देता अरे मुझे अपने घर पहुँचने की पडी थी और बार बार इस ताक में लगा था क़ि दूरिया कम हो क्यों की अभी भी वह डर का कारण बना हुआ था।
कई बार मैनें उस शराबी की बात को उस ट्रक वाले ड्राइवर से कन्फर्म किया सोंचा कहीं इनकी कोई चाल तो नहीं हमें यहाँ ट्रक में बैठाने का और जब घर की ओर की दूरिया कम होने लगी तो दिमाग फ्री होता दिखा। परंतु थोड़ी देर में ही शराबी ने कहा, इधर सुनो अपना मुह मेरे कान पर लगाया मैंने कहा अब तो लग रहा है कुछ अनर्थ हो जायेगा। मैंने कहा हाँ बोलो 'तेजी से, और चिल्लाया कहता है, चुप रहो मैंने एक कतल किया अभी और फिर कचहरी आ गया। मुझे कौन नहीं जानता सब जानते है कहो तो। इतना कहा कि मेरा डरना तो और भी जरूरी हो गया । दीदी को जो बात उसने मुझसे कही वह पता न चला इसलिए उन्हें उतना डर नहीं महसूस हुआ। परंतु अब तो घर के नजदीक भी आ ही रहे थे। उसने कहा मैं जमकर शराब पीया और वही मारके उसे नदिया में फेंक के आ रहे है मैं तो डॉ साहब से भी कई बार कहा क़ि जरुरत हो तो आपिके एंटी पार्टी को वही नदिया में वईसे फेंकवा देयी जईसे ससुरे के अभिनय आवत हाई, । मैंने केवल कहा अच्छा तो क्या हुआ अच्छा किया मार दिया बहुत अच्छा पर पुलिस पा गयी तो। अरे पुलिस खोजा करे हमे सब जानत थीन केहु उखड नई सकत कुछ। अब खोजा करे हमे तो पईसा जे देयी सबके वाली करब हमसे और कोनो मतलब नहीं अब हम घर जात हाई और सोईब भिन्नन्हाई हम फिर आयी के दुकानी पे काम करब। हम कहे अरे बहुत अच्छा किहा। अंदर से तो गाली देने का मन कर रहा था मेरी चलती तो उसे उठा कर ट्रक से बाहर फेंक देता। वैसे भी अब बिना मन के उसकी बात में हाँ में हाँ मिलाते बहुत देर हो चुकी थी और इतना पका दिया था कि अब शराब भी उतरने को हो रही थी। भईया उतारा यही उसने ड्रायवर से कहा अपने बताए घर की और जाने वाली गली की ओर इशारा करके वह उतर गया। अब मैं और दीदी थे। मैंने ट्रक वाले भईया से बोला भईया ये आदमी जो उतरा है इसे जानते थे क्या। कहता है नहीं मैंने बस ऐसे ही बिठा लिया सोंचा इधर जा रहा हूँ बैठाये चलूँ । मेरे दिमाग में आया क़ि हो सकता है क़ि ये सोंचा हो कि कुछ पैसे मिल जाएंगे इसलिए बिठा लिया होगा परंतु उसने शराबी के द्वारा 20 रूपये दिए जाने के बाद लेने से इनकार कर दिया था। हमें उसने हमारे घर से आगे थोड़ी दूर पर पहुँचने पर उतार दिया क्योंकि बातों के चक्कर में और घने अँधेरे में मैं अपना घर भूल गया था। मैंने उसकी ओर 40 रूपये बढ़ाया उसने लेने से इनकार कर दिया। मेरे बहुत कहने पर भी वह पैसे नहीं लिया और फिर ट्रक ड्राईवर के रूप में गाने सुनते हुए चल दिया ......
प्रभात
कहानी आगे- पीछे दोनों तरफ है कृपया साथ बने रहिएगा।



इश्क


🌷🌷🌷$इश्क?🌷🌷🌷
-गूगल से साभार 
इश्क में वह एक सवाल कर गयी
मुझे उससे मुहब्बत है या उसे मुझसे 
#######
इश्क में मैंने उन्हें ख़त लिख दिया
वे इसे मेरी आदत समझ बैठे💌💌
#######
इश्क में मेरे अंदाज बदलने लगे 
खुदा जाने क्यों लिबास चमकने लगे 👘👒
#######
इश्क में मैं उन्हें इतना चाहने लगा 
खुद को भूल गया, बस उन्हें पहचानने लगा 👓👓
#######
इश्क में मैंने खुद का इतना गुनहगार समझा
तुम्हारी आंसुओं का खुद हक़दार समझा 😂😂
#######
इश्क ने मुफ़लिसी में बस इतना साथ दिया
मुझे बर्बाद कर दिया और उन्हें आबाद कर दिया😮😀
#######
इश्क ने मुझको तनहा बनाया, 
मजबूरी में गम में रहना सिखाया😋😔
#######
इश्क में जब भी वह मुझे सताते रहे
मैं समझा वे मुझे रोशनी दिखाते रहे🌞🌞
#######
और अंत में जाते-जाते फ़िल्म "नसीब" से भी एक शेर सुनते जाइए

*अपनी हद से न गुजरे कोई इश्क में 
जिसे जो मिलता है नसीब से मिलता है*🍷🍷
-प्रभात


जाति-धर्म


जाति-धर्म 
-गूगल से साभार 
किसी ने कहा क्या नाम है आपका 
मैंने कहा प्रभात
परभात वो तो ठीक है आगे क्या है
आगे प्रभाकर/मध्याह्न है, मैंने कहा
नहीं नहीं मतलब...अच्छा छोड़ो
तुम्हारे पिताजी का नाम है क्या
हां बिना नाम के कोई होता है क्या
तो वही तो पूछ रहा हूँ, उन्होंने कहा
डॉ प्रेम नारायण है पिताजी मेरे
अच्छा आगे क्या लगाते है
कुछ नहीं लगाते है 
कैसा नाम है पूरा परिवार ही है ऐसे ?
मैंने कहा हाँ ऐसे ही है
वैसे कोई तो कुछ लिखता ही होगा
हाँ कुछ न कुछ तो लिखते ही है लोग
आप क्या जानना चाहते है?
जाति केवल या नाम पूरा
हाँ वही, उन्होंने कहा
तो आपने सीधे क्यों नहीं पुछा 'कुर्मी' हूँ
कुर्मी? मतलब नाम में क्या लगाते है कुर्मी 
चौधरी, सिंह, पटेल, वर्मा सब कुछ जो मिल जाये
अच्छा तो चौधरी हो मतलब जाट
नहीं, नहीं जाट से अलग 
चौधरी हम भी लगा लेते है
तो तुमने पहले क्यों नही बताया
अरे मैं तो कुछ नहीं लगाता न
अच्छा वैसे कोई रिजर्वेशन है क्या
हाँ ओबीसी, पिछड़े है हम
यही तो हम जानना चाहते थे उन्होंने कहा
तो सीधे पूछ लिया होता मैंने कहा
कोई जवाब नहीं मिला,
सुनो! जाति, धर्म, वंश क्यों पूछते हो
जब सारी जातियों की कहानी न मालूम हो
जब सारे जातियों के गोत्र न मालूम हो
जानकारी तो मजहब का भी नहीं है तुम्हे
तुम जाति पर आ जाते हो
बंटवारा करने, और दोस्ती करने 
धर्म मानव का तुमने सीखा क्यों नहीं
जाति से रिश्ता बनाना तुमने सीखा है अगर
तो अपने जाति के सबसे पिछड़े आदमी को देखो 
वह गरीब क्यों है, उससे रिश्ता क्यों नहीं बनाया
उसकी तो उपजाति गरीब तुमने ही उपजाई
कहते हो आरक्षण मत दो
मैं भी कहता हूँ मत दो
मगर पूछना तो बंद करो जाति-पाति
इंसान बांटना बंद करो मज़हब पर
और अंतर्जातीय शादिया मत रोको
और बर्तन-बिस्तर अलग न होने दो
फिर आरक्षण मत दो!!!
-प्रभात



किसान

किसान 
-गूगल से साभार

जल रहा है सूरज भी कब से, देखो कब तक जलता है 
हवा पानी और भूख से तरसकर नन्हा भी कैसे पलता है 
कौन कहे सूखा है सब कुछ, सूखा तो केवल जीवन है 
सब गंगा को सुखा रहे है और सूखा तो उनके धन से है 
सूखे की तड़प में जैसे लातूर के हर गाँव पड़े है 
वैसे ही न जाने कितने शव गंगा में हर बार पड़े है 
चाहे लटके मिले हो लाशें कमरे के अन्दर पंखो पर 
लटका है जो एक गरीब किसान वो भी आम के पेड़ों पर 
बहुतों ने दिया है जान सूखे कुओं में अन्दर जाकर 
कुछ तो तड़पे है भूखे-प्यासे होकर मीलों चलकर,
जो कर्ज में है डूबे, उनके फसलों में आग बरसता है
बर्बादी हालात में ही तब, खुदकुशी सा भाव पनपता है

रोटी के टुकड़ों टुकड़ों से कैसे रोते रोते पेट भरेंगे 
पानी -पानी के लिए न जाने कितने भी अब लोग मरेंगे
होता है सर्वस्व चुकाने को जब सूखा से घर बिक जाता है 
सूखे में बिक जाए गुड़िया, मुखिया पहले ही चला जाता है
बारिश के इंतज़ार में गुड़िया के आंसू गहनों से लगते है
रोते बिलखते परिवार कभी पलायन करने लगते है 
जब मंगरू का कुआँ भी सूखा सूखा-सूखा रहता है 
उड़ते परिंदों से ही वह अब, पेट ही भरने लगता है 
चिल्ला चिल्ला कर जानवर भी दम तोड़ने से लगते है
और तूफानी हवा में नन्हें आगों में झुलसे जाते है 
विपदा सहते सहते जब हार नजर आ जाती है 
तो उड़ता बाज भी गायब आसमां से हो जाता है 
और प्रकृति से तबाही का मंजर अब बाजारों में आता है 
दाल रोटी भी सोने के भाव अब बिक-बिक सा जाता है 
जल रही है आग जो बाजारों में दिल तक पहुँच जाता है 
और क्रोधित इंसान मारकर खुद को, परिवार ही खा जाता है 
-प्रभात