प्रश्न बनकर रह गया हमारा जीवन
-From google |
जब टूट गये थे
तार हमारे
रिश्तों पर संवाद
हमारे
भीग गया था प्रेम
पत्र
ख्वाबों में दूरी
दिखती थी
था आसमान में एक
तारा फिर भी
प्रेयशी को
प्यारा लगता था
रात चांदनी में,
वह उसके
रोज उजाला लेकर आता
राहों में उसके दिखता
था
बारिश की बूंदों
में वह बिखरा
गर्मी के मौसम
में वह एक तारा
खोकर भी वह उभरा
था
अचानक बारिश में ही
आज प्रियतमा
मेरी आँखों में समा
गयी
निःशब्द हुआ जब
तारा वह
देखा अपनी
प्रेयशी को
न उसके जज्बात
मिले उससे
न भावों की उसके बरसात
दिखी
चली गयी अब वह
दूर कही
लगता है, नहीं है
प्रेम की डोर बंधी
फिर छुप गया मैं
एक तारा बन वही
बरसात में और
विरह के आकाश में
प्रश्न बनकर रह
गया हमारा जीवन
क्यों नहीं हो
गया प्रकाशमय .................
-प्रभात
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-07-2016) को "धरती पर हरियाली छाई" (चर्चा अंक-2405) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
विनम्र आभार
Deleteभावनाओ के ज्वार में शब्दों का बह जाना . ऐसी ही कविता निकलती है ह्रदय से. बहुत सुँदर :)
ReplyDeleteबहुत- बहुत धन्यवाद संजय जी
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