आज
कॉलेज से आया ही था कि अचानक ही मुझे बताया गया कि आपको डीजीपी लखनऊ के यहाँ मिलने
जाना होगा जनवरी का पहला हफ्ता था काफी ठण्ड पड़ रही थी। फिर भी ऐसी घड़ी में ठण्ड
तो दूर भाग गया था। मेरी जिंदगी में ऐसे कई मौके आये जब किसी न किसी पुलिस अधिकारी
से मिलने जाना पड़ा है। ये सौभाग्य नहीं है यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा । इस बार तो
मन में सवाल ही उठ रहे थे क़ि आखिर क्या तरकीब है, इसके
बावजूद कि फर्जी मुकदमें में चार्ज शीट लग गयी हो और सारी पुलिस हमारे जिले की
फर्जी पर फर्जी चार्ज लगाने के लिए बैठी हो , ऐसे समय जब कोई
सिपाही तो दूर क्लर्क भी यह बकता दिखाई दे रहा हो कि करो आरटीआई और अब जेल
जाओगे..., जिससे यह मुसीबत टल सके। कल ही गैर जमानती वारंट
का पता भी चला था जबकि लगे हुए 10 दिन बीत चुके थे। ऐसा
इसलिए था क्योंकि सारे काम छुपाये जा रहे थे, गिरफ्तारी जो
होना था। दरअसल पुलिस गिरफ्तारी से बचना भी था और यह भी पता लगाना कि पुलिस कर
क्या रही है, अकेले ही जब ऐसे समय में कोई न रिश्तेदार साथ
हो न अपने सगे तो यह काम काफी कठिन हो जाता है। मैं करता भी क्या काम यही था न्याय
की भीख मांगने दर दर भटकना और बिके पुलिस अधिकारियों की गाली खाना। पिताजी तो हताश
बिलकुल भी नहीं थे पता नहीं क्यों ऐसा लगा जबकि उनके जेल जाने के अलावा कोई और
चारा नहीं दिखाई दे रहा था। मैं और मेरा परिवार एक दूसरे को सांत्वना ही दे सकते
थे।
डीजीपी
लखनऊ के यहाँ से ही कुछ हो सकता था मन में कई सवाल उठ रहे थे आखिर कोई दोस्त ही
मेरी सहायता क्यों नहीं कर देता। मैं सोंच रहा था कि अगर मैं कुछ अपने पिता के लिए
नहीं कर सका तो फिर मेरे रहने का क्या वजूद? क्या इतना नहीं
कर सकता किसी पत्रकार से मिलकर ही मीडिया में यह बात पंहुचा दूँ। किसी से बात करता
तो फोन नहीं उठाता था चाहे वह कितना भी सगा न हो । हाँ जो अपने दोस्त होने की मुझे
दुहाई दे रहे थे वे मेरा हालचाल लेने के लिए तैयार नहीं थे। घर में मां अकेले थी ।
उनका साथ देने वाला कोई नहीं था । अकेले रो रो कर दिन कटते थे । मन में तो बस यही
आ रहा था कि कल जाकर सुबह सारा दुखड़ा पुलिस महानिदेशक के यहाँ ही पहुंचकर
सुनाऊंगा। अगर मेरी नहीं सुने तो क्या होगा? होगा क्या
फिल्मों के डायलॉग ही चाहे दूसरों को लगे पर हकीकत के लिए अपनी हर बात पूरे सच्चाई
के साथ कहूंगा...अगर भ्रष्ट वह भी हुआ तो ? बहुत करेगा तो
मुझे भी फर्जी केस में जेल भेज देगा...क्या पता ईमानदार ही मिल जाए.. सोंच रहा था
मुझे एक मिनट के लिए कोई कलेक्टर ही बना दे मैं सबकी वर्दी उतरवा दूंगा। जो जो
भ्रष्ट है और जिस जिस ने मुझे बेइज्जत किया अब तक उसे तो मैं सीधे ऊपर ही पहुंचा
दूंगा...मगर कैसे कलेक्टर से अच्छा रिवाल्वर हाथ में लेना ही अंतिम कदम हो सकता
है। अंतिम रूप से सवाल जवाब की इस प्रक्रिया में मैं आतंकवाद ही खुद को मान लेना
चाहता था। पर जिंदगी में हार ही मानना पड़ेगा अपने आप से क्योंकि घर वाले मुझे जेल
में देखकर नहीं जी सकेंगे । यह एक ऐसी ज्वाला थी जो सामने वाले को उसका
उत्तरदायित्व बातों से ही समझाने के लिए पर्याप्त थी । बस फिर भी एक कोई तो ऐसा
होना चाहिए था जो मेरे दिल्ली से लखनऊ तक के सफर में केवल साथ दे सकता था । ऐसा
सोंच रहा था।
डीजीपी
को संबोधित एप्लीकेशन तैयार किया और दोस्तों से सहायता मांगने को प्रत्यक्ष और
अप्रत्यक्ष रूप से कोशिश करने लगा की शायद मेरे साथ इस भागमभाग की जिंदगी में कोई
साथ चलने को तैयार हो जाये। मैं तो भाड़े का किराया उसके लिए सारी सुख सुविधा देने
के लिए तैयार था। बस जरुरत थी यात्रा साथी की जो मुझे मनोबल दे सकता था। और मेरे
विचारों में उल्लास भर सकता था । सन्योग से अप्रत्यक्ष रूप से कहने पर तो
अप्रत्यक्ष मशीनरी से कोई जवाब किसी का नहीं मिला । आजकल अप्रत्यक्ष मशीनरी का
इस्तेमाल केवल लगता है हाय और गुड नाइट और अधिकतम डियर बाय तक के लिए ही होता है ।
ऐसा मान लेना ही पड़ा , दोस्तों को मैंने फिर भी अपने विचारों से ही
उन्हें सफल मान लिया, क्योंकि शायद वे सही है अगर हम उनकी
जगह पर ऐसे व्यस्त जिंदगी जीते तो हम उनके यात्रा साथी नहीं बन पाते । बस इसी
सकारात्मक भाव से रिश्ते जोड़ने की कोशिश करता रहता हूँ मगर निराशा कभी कभी आ ही
जाती है जिसका हल मैं कर लेता हूँ खुद को जिम्मेदार मानकर।
खैर
एक कनिष्ट सहायक और सबसे अच्छे दोस्त मन के सच्चे मित्र तैयार हो ही गए और अब शाम
के 6 बज चुके थे ऊपर की सारी प्रक्रिया मात्र एक घंटे
की ही थी मतलब लखनऊ जाने का विचार और इस तरीके की बताकही। सुबह अगले दिन समय से
पहुँचने के लिए मेरे पास केवल एक ही ट्रेन उपयुक्त थी वह लखनऊ मेल ।और वैसे भी
हमारे रुट की सारी रेलगाड़ियां देर हो ही रही थी। भारतीय रेलवे तो ऐसे समय जब कोहरा
केवल नाम का होता था तो भी 6 घंटे देरी से ही चलने का अनाउंस
किया करती है। टिकेट था तो नहीं । मिल जाता तो शायद उसे मनचाहा राशि चूका ही देते
। मगर ये तो होता इस भय की बीमारी में बीमार होने से बच तो जाता । मैं अपने कमरे
से गर्म कपडे लेकर एक बैग लटकाये और फोन लिए निकल चुका था मगर लेट भी था। पर पकड़नी
थी हम दोनों मतलब मुझे व् मेरे यात्रा साथी को साथ में ही वह ट्रेन उनसे मैंने कहा
भाई कि आपके पास विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन पास है और मैं दूर हूँ तो आप पहले
मेरे कमरे से निकले अपने कमरे पर सामान लेने और मैं यहाँ से निकलता हूँ। संयोग से
मैं सही टाइम पर लगभग अर्थात भारतीय लोगों के अनुसार पहुच तो जाता वही स्टेशन पर
भाग कर नयी दिल्ली से । मगर अगर भागता तो । तब तक हाफते हुए जनवरी में वह और मैं
एक साथ मिलते है। नयी दिल्ली मेट्रो स्टेशन बस अब ध्यान था केवल क़ि लखनऊ मेल पकड़नी
है चाहे जैसे भी। पसीने तो पोछने का समय था ही नहीं । घड़ी में 3 मिनट बचा था लगा क़ि पहुच जायँगे वैसे भी ट्रेन कितना भी समय से चले तो भी 2
या 3 मिनट देरी से ही चलेगी। इसी विचार में हम
बिना टिकट ही बैठने के लिए स्टेशन के लिए रवाना हुये। भागे मगर सामने बैग डालने की
अंधाधुंध चेकिंग को क्रॉस करते हुए सीधे पहले प्लेटफॉर्म पर पहुचे देखा तो सामने
ही लुखनऊ मेल रवाना हो रही थी और जब तक सोंचते क़ि बैठे वह रफ़्तार पकड़ चुकी थी।
ट्रेन तो छूट गयी मगर लखनऊ पहुंचने का आत्मविश्वास कायम था । जबकि
यह छूटने वाली ट्रेन उस रुट पर जाने के लिए अंतिम ट्रेन थी दिल्ली से जाने के लिए।
एक ट्रेन और थी मगर लखनऊ ऐसी स्पेशल उसे केवल 11 बजे रात को
जाने के लिए दिखाया जाता है ऑनलाइन मगर ऑफलाइन कभी जाते हुए देखा नहीं । फिर भी
इसमें भी ट्राई किया ही जा सकता है ऐसा सोंचकर थोड़ा पसीना पोंछते हुए पूछताछ
काउंटर की और हम दोनों प्रस्थान करने लगते है...... कहानी आगे और पीछे दोनों तरफ
है मगर आगे की कहानी के लिए साथ बने रहिएगा आज के लिए बस इतना ही !
प्रभात
प्रभात
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