Sunday, 3 July 2016

किसान

किसान 
-गूगल से साभार

जल रहा है सूरज भी कब से, देखो कब तक जलता है 
हवा पानी और भूख से तरसकर नन्हा भी कैसे पलता है 
कौन कहे सूखा है सब कुछ, सूखा तो केवल जीवन है 
सब गंगा को सुखा रहे है और सूखा तो उनके धन से है 
सूखे की तड़प में जैसे लातूर के हर गाँव पड़े है 
वैसे ही न जाने कितने शव गंगा में हर बार पड़े है 
चाहे लटके मिले हो लाशें कमरे के अन्दर पंखो पर 
लटका है जो एक गरीब किसान वो भी आम के पेड़ों पर 
बहुतों ने दिया है जान सूखे कुओं में अन्दर जाकर 
कुछ तो तड़पे है भूखे-प्यासे होकर मीलों चलकर,
जो कर्ज में है डूबे, उनके फसलों में आग बरसता है
बर्बादी हालात में ही तब, खुदकुशी सा भाव पनपता है

रोटी के टुकड़ों टुकड़ों से कैसे रोते रोते पेट भरेंगे 
पानी -पानी के लिए न जाने कितने भी अब लोग मरेंगे
होता है सर्वस्व चुकाने को जब सूखा से घर बिक जाता है 
सूखे में बिक जाए गुड़िया, मुखिया पहले ही चला जाता है
बारिश के इंतज़ार में गुड़िया के आंसू गहनों से लगते है
रोते बिलखते परिवार कभी पलायन करने लगते है 
जब मंगरू का कुआँ भी सूखा सूखा-सूखा रहता है 
उड़ते परिंदों से ही वह अब, पेट ही भरने लगता है 
चिल्ला चिल्ला कर जानवर भी दम तोड़ने से लगते है
और तूफानी हवा में नन्हें आगों में झुलसे जाते है 
विपदा सहते सहते जब हार नजर आ जाती है 
तो उड़ता बाज भी गायब आसमां से हो जाता है 
और प्रकृति से तबाही का मंजर अब बाजारों में आता है 
दाल रोटी भी सोने के भाव अब बिक-बिक सा जाता है 
जल रही है आग जो बाजारों में दिल तक पहुँच जाता है 
और क्रोधित इंसान मारकर खुद को, परिवार ही खा जाता है 
-प्रभात


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