Saturday 26 March 2016

मैं कितने सीते खोता जाऊं

अविश्वास न रहे तेरे मन में, मैं कितने सीते खोता जाऊं
अपनी मर्यादा की रक्षा में, हिंसा कैसे फैलाता जाऊं
फूल नहीं है जब देने को इतने, काटों तुम चुभते जाओ
तुम भी मुझको चुभाते जाओ, मैं भी तुमको चुभाता जाऊं
अन्धकार में दीपक जलाकर अँधेरा कैसे मिटाता जाऊं
तुम रोजाना आग लगाते जाओ, मैं दीपक जलाते जाऊं  
अचरज है मुझको ताज तुम्हारी ईटें कैसे खड़ी हुयी है
तुम मुमताज की याद बताते जाओं, मैं हिंसा बताता जाऊं
प्रेम के सौदागर बनकर मुझसे, तुमने छीना है लाज मेरा  
तुम सबको मजबूरी बताते जाओ, मैं असहाय बना जाऊं

-प्रभात 

Saturday 19 March 2016

तुम रहते हो कितने पास

तुम रहते हो कितने पास मगर मेरे साथ नहीं होते
तुम गाते हो कितने गीत मगर मेरे गीत नहीं होते
लिखते हो सब कुछ वैसा जैसे मेरा ही वर्णन हो
कहते हो मुझसे वही बात जिसमें अपनापन हो
पर करते हो कितनी बात मगर मेरे बात नहीं होते
शायद होते है वही जज्बात मगर ख्याल नहीं होते
तुमने देखा था मुझे खूब कभी मेरी राहों में आकर
मैंने सोंचा था तुम्हें खूब तुम्हारी राहों पर जाकर
हम करते है तुमसे प्यार मगर मेरे साथ नहीं होते
आते हो अब भी पास मगर मुलाक़ात नहीं होते
तुम जानते हो सारी बात मगर कुछ नहीं कहते
होते और करते हो उदास मगर बात नहीं कहते
-प्रभात

Wednesday 16 March 2016

55-/15

55-/15 (सच्ची घटना पर आधारित मेरी एक कहानी)-
“कहानी और मेरी आत्मकथा में ज्यादा अंतर नहीं है परन्तु मैं इन्हें काफी संवेदनशील समझ थोड़ा अलग रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ जिनका सम्बन्ध किसी जाने पहचाने व्यक्ति, स्थान और विषयवस्तु से हो भी सकता है और नहीं भी”
१ .
जब मुझे फोन की घंटी सुनायी दी थी तो मैं सहम गया था क्योंकि अचानक घर से फ़ोन आना और बेवक्त का हमारे दृष्ट से अनकूल नहीं लग रहा था. मुझे लगा था कि फोन उठाना जरूरी तो नहीं परन्तु भय था कहीं कोई विषम परिस्थिति तो नहीं. डरते हुए मैंने साहस किया और लपककर फोन का बटन छुआ लगा मेरी दिल की धड़कन आसामान्य हो गयी थी. जब मैंने खबर सुनने से पहले का शब्द सुना  कि “बेटा!” तो मैं और भी असामान्य हो गया ये प्यार और लगाव की भाषा थी दिखने में और समझने में पर किसी विषम परिस्थिति का अर्थात किसी संकट का परिचायक भी. ऐसा मुझे ही लगा क्योंकि मुझे ऐसा ही वक्त और ऐसे ही आवाज आज से लगभग ६-7 साल पहले भी सुनायी दी थी. आज जैसे शोक का मौसम दिखाई देने लगा था. मेरी आँखों के सामने अन्धकार सा महसूस होने लगा. मेरे घर में लगे बिना पेंट किया हुआ दरवाजा, घर के सामने बना मंदिर, घर का उजड़ा आँगन भले ही वहां खूबसूरत फूल खिले हुए हो, घर में बूढ़ी दादी और सब कुछ सामने दिखाई देने लगा था परन्तु अधेरा हो ही चला था. ९-१० बजे रात को और भी कुछ कई चीज़ें घर की सामने दिख रही थे घर का बिना प्लास्टर का बरामदा जिसकी दीवारें तो इतनी चौड़ी है जितनी आजकल की नीव भी न होंगी, और इसी वजह से शायद मेरी मजबूती भी थी मेरे हौसलें थे एक पक्षी को अपने घोंसले में जाने की तरह से उड़ने वाले ही. डरते डरते ही हाँ भी बोला कई बार पर सुना और जो सुना उसे अनसुना भी कर दिया. लगता था मैं सब कुछ सुनकर कहीं बोझ से दब न जाऊं. परन्तु सुनाने वाले मेरे घर के फ़ोन की घंटी ने इतना जरुर इशारा कर दिया था. कि तैयार हो जाओ संकट सामने है.

मैं अपने दिल्ली वाले कमरे में बैठा किसी दोस्त का इंतज़ार कर रहा था उस दोस्त का जो मुझसे फेसबुक पर दोस्ती करके मिली थी बस नजदीक के ही थे और हम दोनों की जानपहचान के पीछे मेरी एक अच्छी दोस्त भी थी. शायद इसी वजह से दिल्ली के विश्वविद्यालय कैम्पस में ही मिलना तय था. मैं बस निकलने ही वाला था तभी तो ऐसा संकट आया. मैंने सन्देश बॉक्स से सन्देश तो पंहुचा दिया कि शायद आज न मिल पाऊं. क्या हुआ? ऐसे कई जवाब मेरे सन्देश के प्रतुत्तर में मेरे सन्देश बॉक्स में आकर पड़ गए थे जिनका जवाब देना भी मेरे लिए मुश्किल था. मेरे लिए तो जैसे एक एक सेकण्ड कीमती हो चला था. मैंने आगे कुछ उत्तर देना जरुरी नहीं समझा १० मिनट बीते होंगे और तब तक मुझे इस प्रकार से तैयार करा दिया गया था कि जैसे मैं किसी न्यायालय में बैठा कोई रिट टाईप करने वाला बाबू हूँ. १० मिनट में ही २ -३ पेज भर गए. और फिर भी फोन के साथ-साथ कलम मेरी चलती रही. आगे जल्दी ही....................

आज तक भूला नहीं वह चाॅकलेट

मेरा हौंसला बढ़ाया था उस वक्त जब 
मैं हार गया था किसी प्रतियोगिता में
आज तक भूला नहीं वह चाॅकलेट
यही उपहार था तुम्हारे शब्दों में 


मेरे लिये मेरी प्रतिभा का
परन्तु वह उपहार था
मेरे साहस और परिचय का
खुद स्वआकलन करने का खुद से
मैं भूला नही उस भीड़ को
जिस भीड़ में मैं अकेला था
बस तुम्हारे लिये
मुझे इस योग्य समझा
और सबसे अलग अपना पहचान बनाया
मेरे सामने और अपने सामने भी
ऐसा अनुभव मुझे तब हुआ
जब मैंने पहचाना और देखा
उस सुन्दर और प्यारी इक परी को
जो मेरे जैसे हार गयी थी
सबके सामने मानो उस भीड़ में
पहचाना मैंने उसकी प्रतिभा को
उस छोटे चाॅकलेट की कीमत को
उसमें समावेश था
एक जीवन का सार वह संसार
उन हौंसलौं का तार
जिसने दिया ज्ञान
जीवन के लिये खुशियों का उपहार
बिना कुछ छीनें
भर दिया मुझमें अपना अनवरत प्यार
- प्रभात

Saturday 12 March 2016

कल सोते सोते ख्वाबों में

कल सोते सोते ख्वाबों में तुमसे मिलना सीखा था
टूटे अल्फाजों से बिखरकर जुड़ना तुमसे सीखा था
जो बोया था एक बीज प्रेम का लगता है उग आया
शीतल मुस्काती पवन गिर से सीधे उठ चल आया
लफ़्ज़ तुम्हारे घुले हुए मेरे शब्दों में आता देखा था
पहचान तुम्हारी हो गयी जो मिलते जुलते देखा था

रहा बेसब्री से इंतज़ार तुम्हारा पर तुमसे दूर न पाया
मिलकर ख्वाबों की दुनिया से भूल कभी न पाया
चलता रहता जीवन वैसे जैसे क्षणिक मिलन का था
बहता रहता हवा प्यार का जिससे वर्षों व्याकुल था
टूटे सपने होंगे जब दिखा झरोखे से उजियाला था
तनिक मात्र यही उजियाला मेरे जीवन में काफी था



अंततः तुमसे मिलन की बारी आने पर सहमा आया
जुड़ते शब्दों को सामने लाने की सीमा में घिर आया      
 पुनः सहमें सहमें ही जैसे तुमसे जो भी बात हुआ था
कल ही गगन में दिखा जैसे मन से एक चाँद हुआ था  
आज मिश्रित भावों से भी तुम्हारा ही अलगाव हुआ
क़दमों की आहट से जैसे ह्रदय में गहरा संचार हुआ

नहीं मालूम कि तुम्हारा सपना मेरे सपनों जैसा ही था
पर ज़रूर सोंचना कि तुम्हारे मिलन का अर्थ यही था
-प्रभात