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(सच्ची घटना पर आधारित मेरी एक कहानी)-
“कहानी
और मेरी आत्मकथा में ज्यादा अंतर नहीं है परन्तु मैं इन्हें काफी संवेदनशील समझ
थोड़ा अलग रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ जिनका सम्बन्ध किसी जाने पहचाने व्यक्ति,
स्थान और विषयवस्तु से हो भी सकता है और नहीं भी”
१ .
जब मुझे फोन की घंटी
सुनायी दी थी तो मैं सहम गया था क्योंकि अचानक घर से फ़ोन आना और बेवक्त का हमारे
दृष्ट से अनकूल नहीं लग रहा था. मुझे लगा था कि फोन उठाना जरूरी तो नहीं परन्तु भय
था कहीं कोई विषम परिस्थिति तो नहीं. डरते हुए मैंने साहस किया और लपककर फोन का
बटन छुआ लगा मेरी दिल की धड़कन आसामान्य हो गयी थी. जब मैंने खबर सुनने से पहले का
शब्द सुना कि “बेटा!” तो मैं और भी
असामान्य हो गया ये प्यार और लगाव की भाषा थी दिखने में और समझने में पर किसी विषम
परिस्थिति का अर्थात किसी संकट का परिचायक भी. ऐसा मुझे ही लगा क्योंकि मुझे ऐसा
ही वक्त और ऐसे ही आवाज आज से लगभग ६-7 साल पहले भी सुनायी दी थी. आज जैसे शोक का
मौसम दिखाई देने लगा था. मेरी आँखों के सामने अन्धकार सा महसूस होने लगा. मेरे घर
में लगे बिना पेंट किया हुआ दरवाजा, घर के सामने बना मंदिर, घर का उजड़ा आँगन भले
ही वहां खूबसूरत फूल खिले हुए हो, घर में बूढ़ी दादी और सब कुछ सामने दिखाई देने लगा था परन्तु अधेरा हो ही चला था. ९-१० बजे रात को और
भी कुछ कई चीज़ें घर की सामने दिख रही थे घर का बिना प्लास्टर का बरामदा जिसकी
दीवारें तो इतनी चौड़ी है जितनी आजकल की नीव भी न होंगी, और इसी वजह से शायद मेरी
मजबूती भी थी मेरे हौसलें थे एक पक्षी को अपने घोंसले में जाने की तरह से उड़ने
वाले ही. डरते डरते ही हाँ भी बोला कई बार पर सुना और जो सुना उसे अनसुना भी कर
दिया. लगता था मैं सब कुछ सुनकर कहीं बोझ से दब न जाऊं. परन्तु सुनाने वाले मेरे
घर के फ़ोन की घंटी ने इतना जरुर इशारा कर दिया था. कि तैयार हो जाओ संकट सामने है.
मैं अपने दिल्ली वाले
कमरे में बैठा किसी दोस्त का इंतज़ार कर रहा था उस दोस्त का जो मुझसे फेसबुक पर
दोस्ती करके मिली थी बस नजदीक के ही थे और हम दोनों की जानपहचान के पीछे मेरी एक
अच्छी दोस्त भी थी. शायद इसी वजह से दिल्ली के विश्वविद्यालय कैम्पस में ही मिलना
तय था. मैं बस निकलने ही वाला था तभी तो ऐसा संकट आया. मैंने सन्देश बॉक्स से
सन्देश तो पंहुचा दिया कि शायद आज न मिल पाऊं. क्या हुआ? ऐसे कई जवाब मेरे सन्देश
के प्रतुत्तर में मेरे सन्देश बॉक्स में आकर पड़ गए थे जिनका जवाब देना भी मेरे लिए
मुश्किल था. मेरे लिए तो जैसे एक एक सेकण्ड कीमती हो चला था. मैंने आगे कुछ उत्तर
देना जरुरी नहीं समझा १० मिनट बीते होंगे और तब तक मुझे इस प्रकार से तैयार करा
दिया गया था कि जैसे मैं किसी न्यायालय में बैठा कोई रिट टाईप करने वाला बाबू हूँ.
१० मिनट में ही २ -३ पेज भर गए. और फिर भी फोन के साथ-साथ कलम मेरी चलती रही. आगे
जल्दी ही....................
Good
ReplyDeletethanks
Deleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 16 अप्रैल 2016 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
बहुत आभार
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