Saturday 29 November 2014

ना रही बुलबुल और ना ही उसका तराना है।

आँधियों के आने से वादियों का जाना है
ना रही बुलबुल और ना ही उसका तराना है

कितने खामोश हैं बैठे जंगल के राजा शेर
अब उनकी ही राहों में आदमी का जाना है

रात्रि बन चुका दिन और दिन अँधियारा सा
ये घड़ी सर्द-गर्म रात की बिन मौसम आना हैं

पर्वतों में राह बना कर सो रहे हजारों राही
ऊंचे वृक्षों की कटाई मौत का ही बहाना है

समुद्री लहरे सिमटी थी ज्वार और भाटा तक
अब ये कैसा सुनामी व तूफानी का जमाना है

हदें पार करती हैं वो ज्वालामुखी की ज्वाला 
जहाँ पर जीवन का राख में बदल जाना है
                                                   -प्रभात 

ज्ञान पर व्यंग्य बाण!

    अब देखिये ना हमारे देश के आम लोगों को, जो कभी सब्जी बेचते है तो कभी फुटपाथ पर सो रहे है.  जनता है, बस जनता ही तो हैं. ज्ञान की असीम संभावनाओं से भरा अपना देश संभावनाओं की ही तलाश कर रहा है.

    रास्ते से गुजरते समय सब्जी और संतरे लेने लगा और मुझे यहाँ चिन्तन मनन करने पर मजबूर किया. भैया ये संतरे कैसे दिए. ले लो ४० रुपये किलो का भाव है. मुझे कहने की जरुरत न थी कि कुछ कम कर दो. जो आम लोगों को पड़ ही जाती है. अच्छा चलिए आप आधा किलो कर दीजिये. सामने से स्कूटी को रोकते हुए एक महिला ने भी पूछा “भिया संतरा तैसे दिए?” . ले लो ५० लगा दूंगा.
    मेरी आँखों के सामने ये सब हो रहा था. वो स्कूटी आगे बढ़ायी और निकल गयी. चेहरे पर मास्क लगाई थी उस संतरे वाले भईया को दिखने में वह "चीनी" तो लग रही थी. अरे भैया ये दाम मेरे लिए ४० और उनके लिए ५० ऐसा कैसे? मैंने पूछा. हँसते हुए पता हैं कितने का पड़ता है. अरे तो मुझे देखकर ४० और उन्हें देखकर ५०. नहीं भईया का तुहे बताई ई दुसरे देशे के हो न. अरे क्या बात करते हो ये अपने देश के ही हैं. अक्सर मैंने ऐसे कई मामले देखे जब ऐसा अंतर करते हुए पाया है. अब संतरे वाले भईया को समझाना मुश्किल था कि अपने देश में ऐसे भी लोग है जिनके रंग रूप में अंतर है बाकी हैं तो अपने देश के. फिर भी समझाने की कोशिश किया की उत्तर पूर्व के लोग ऐसे होते है. और हो भी तो ये दाम में अंतर क्यों??. भईया कहा समझते.
    अरे हद हैं लूट लो दूसरे को क्या यही कहता हाँ यही कहा. पर मुझे ये भी पता था सब्जी बेचने और फल बेचने का या फल बेचने का कारोबार यहाँ शहरों में कैसे चलता है. बड़े खुश होते हैं सब्जियों के दाम दुगने बताकर और चेहरे से माप कर. कई बार हद ही हो जाती है जब यही काम हमारे सेठ-शाहूकार कर रहे होते है.
    बाजारीकरण का ज़माना है, ज्ञान का थोड़ी न; साक्षरता का जमाना है न की वास्तविक विद्या लेने का. केवल नारे का इस्तेमाल करके मेरा देश स्वच्छ बन जायेगा. देख तो रहे हैं कूड़ा बिखेर कर साफ करते हुए हमारे माननीय नेता जी अपने लक्ष्य को प्राप्त कर रहे हैं.  स्कूल बढ़ जायेंगे परन्तु आधारभूत संरचना का नाश करके. कहते हैं कम्पूटर का इस्तेमाल करेंगे और कलम कौन पकड़ेगा.
    अरे अब क्या मैं कोई नयी कहानी तो नहीं लिखने जा रहा. बस बता ही रहा हूँ कुछ अंतर जिनसे देश की उन्नति तभी होगी जब इन अंतरों को सब के सामने लाया ही ना जाया बल्कि हमारी आवाज को केवल इसलिए न दबाया जाएं क्योंकि मैं राजनैतिक बातें कर रहा हूँ और मेरा काम केवल बुराई करना ही है. जी नहीं मैं चाहता हूँ ऐसे संतरे वालों को कम से कम एक नैतिक ज्ञान न दिया जाये तो फुटकर ज्ञान दिलाया जा सके जिससे उन्हें अपने देश की चहारदीवारी तो पता हो.
    हमने तो उनकी बात तो कर ली अपनी तो की ही नहीं हमारे अपने भाइयों की जिन्हें ये नहीं पता की राजनेता का मतलब क्या है अपने अधिकार क्या है. कभी देखता हूँ हमारे विश्वविद्यालय की पंचवर्षीय स्नातक स्नात्कोत्तर पढ़ाई के बाद स्कॉलर बने लोगों की उन्हें तो नैतिक ज्ञान जितना था वो उसका इस्तेमाल अपने पंचवर्षीय योजना को बनाये रखने में लगा रहे हैं हद तब हो जाती है जब उनसे पूछा जाता है कि अखबार कौन सा पढ़ते हो. कहा समय मिले तब न. अखबार पढ़ते नहीं अंतिम पेज को देखते जरुर हैं. उन्हें तो बस मोदी का नाम पता होता हैं अपने एमपी का क्या प्रधान तक का नहीं.
    मेरी बात समझ में आ ही गयी होगी कि मैं केवल ज्ञान के उस धारा की बात कर रहा हूँ जहाँ से ये हमारे बचपन में लिटिल फ्लावर से शुरू होकर हमारी स्थिति में डेल्टा बना कर रुक जाती है और उस डेल्टा का उपजाऊपन बाबू की कुर्सी पकडे मिलती हैं. देश अनमोल हैं जहाँ डिग्रिया स्कूल से मिलती हैं और परीक्षा में पास कोचिंग कराती है. अरे ये कोचिंग वहां से होती है जब आठवी फेल दसवी पास करें और कुछ नगरों में पलायन कर अधिकारी बने १०१ प्रतिशत गारंटी के साथ.
     सच होता हैं कितने सपने जब माँ की गोंद में आने शुरू होते हैं और १ ००० तक की नौकरी जो की अपने सरकारी स्कूल के वजीफा से भी कम होता है उसमें अपने दिन और रात गुजरने लगते है . सुनता हूँ पहले रासन मिलता था अब उसकी जगह कम्पूटर मिलने लगा. कितनों ने तो अपने कम्पूटर से पैसे कमाने चालू कर दिए कैसे? उत्तर दूँ.... प्रकाश तो केवल सूरज की आती है हमारे गाँव में भूसा वाले कोठरी में जगह थी वहां चार्ज कर लेते है मशीन को और कभी चित्र दिखा के तो कभी गाना भर के पैसा आ जाता है.
    इतने तक ही बात नहीं सीमित है विकासशील देश क्यों है?? नहीं पता बाबूजी सब अपना विकास कर रहे है पहले पढ़ते हैं १४ तक फिर १२ से फिर दाखिला हो जाता है शादी एक बार होती हैं दुबारा से करनी पड़ती है बात क्या है अरे वो लडकी बदचलन जो थी वही खातिन. नहीं अरे ऐसा कोई बात नहीं बगल के चाचा अपनी लडकी के बगल के गऊवा में यही नाते किहिन कि खेत अच्छा बा लड़का तो अच्छा नहीं कोनों बात नाही, वो कम रुपईया में बिक गईल.इतने तो बात हैं. जब बात आती हैं अच्छी लड़के  से करने की जो उसके साथ पढ़ता था और आज अच्छी नौकरी हैं.... तो पता चलता है इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उनके घर में सारे संस्कारी है दूसरे जाति के लड़के से नहीं करेंगे न.
    अब ये भी पता चल गया होगा की मैं आधुनिकता और भौतिकवाद की बात क्यों लाया. मुझे नैतिक और वास्तविक ज्ञान के बारे में बताने का माध्यम मिला फेसबुक वहां कभी देखता हूँ कि मेरे लिखने पर अगर एक लाईक या एक पोस्ट हमारे गुरूजी या कोई अधिकारी या बड़े लोगों का आ जाता हैं तो उस के बाद गुरूजी के शिष्य और अधिकारियों के फालोवर बड़े जल्दी से आकर आईनें में चेहरा दिखा जाते हैं. मेरा मन कभी सोचता है बस इतना ही कि ये फेसबुक कभी फेकू की दुनिया न बन जाए.
    ये हिंदी भी क्या अजीब भाषा हैं, दो देश-प्रेमी बातें कर रहे थे. हिंदी आती हैं या नहीं, मुझे उन पर संदेह है पर अंगरेजी उन्हें हिंदी के बीच में इतनी जरुर आती है “फक यार........एक्जक्ट्ली...........स्योर ............ओ हाईई ई ..........चल तू स्लीप कर ले” अरे उन्होंने इतना कहते ही हमारी हिंदी को कई बार “चीप” भी बताया; इतना ही नहीं कभी चाट वाला, मैडम से “अवश्य” बोल दे तो उन्हें हंसी आती हैं...और भी तो और जब विज्ञान  क्लास में हिंदी भाषी बच्चा अपनी भाषा में कुछ कह दे तो इससे अच्छा जोक उन्हें क्या मिलेगा. कभी वे भी जो नहीं हँसते, हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते है...मतलब साफ़ समझ आता हैं कि हमारा देश की पहचान का मजाक तो बन ही रहा है साथ ही साथ  हमारा मजाक भी बन रहा हैं.  हमारे देश का मजाक और उसकी सभ्यता संस्कृति का मजाक भी बनने की बात अब आप ही करे तो बेहतर होगा.

“बस आज इतना ही. मेरे व्यंग्य वाली भाषा के साथ बने रहने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद ”.  
                                                                                       साभार, "-प्रभात"

Sunday 16 November 2014

मेरे बचपन के दिनों को बहुत याद कराती है।

सूरज तुम्हारी लाली, आँगन में जो आती है
मेरे बचपन के दिनों को बहुत याद कराती है 
कोयल की कूं –कूं के साथ सुबह तेरा होना,
फूलों के गुच्छों का, सूरज तेरी ओर होना;
उठ कर बैठे देर तक तुम्हारी याद दिलाती है
जाड़े वाले ऋतु की सुबह, अब भी इंतजार कराती है। 


पानी भर कर इंतजार करती, मेरी माँ प्यार से
बार बार दूर भागता, फिर पकड़ती और मुस्कुराती;
मेरे लिए पहले ही चटाई लगाती थी, याद से
सरसों के तेल से मालिश करना और
गोद में होने का सुन्दर अहसास कराती हैं
मेरे बचपन के दिनों को बहुत याद कराती है

शाम की चर्चा पर बैठे अलाव के पास,
खेलते हुए और कहानियों पर हँसते हुए;
अब भी दादी का बनाया पकवान खाकर,
रजाई में सोये दादा के साथ; दादी की याद आतीं है
बन्दर की टोपी पहनानें, चांदनी रात बुलाती  हैं
ओंस भरी सुबह, रातों का सुन्दर अहसास कराती है
                                       -"प्रभात"

Tuesday 4 November 2014

.............देखे हैं ।

अपनी आँखों ने सपने वही देखे हैं
जो दर्द ने मेरे दिल से कभी बयाँ किये हैं

कई हजारों को अपने पास से गुजरते देखे हैं
संभल कर दौड़ जाने वालों को भी देखे हैं

कभी मुस्कराहट तो कभी गम देखे हैं
कुछ चेहरों पर इतर खामोशी के झलक देखे हैं

नाइंसाफी की मार पड़ते कुछ पर देखे हैं
फिर भी हंसकर फंदे से लिपट जाते भी देखे हैं

भीड़ में साथ चलने वालों को देखे हैं
वहीं अकेले चलकर भटकने वालों को कई देखे हैं

हमारी तालीम पर हंस कर गुजरनें वालों को देखे हैं
सीखते परिंदों से ही भ्रमण करने वालों को भी देखे हैं     
                                                          -“प्रभात”

मेरे शब्द।

शब्द जुबां से लड़खड़ाएं
मेरे पन्नों से टकराएं
मेरी आँखों को समझाएं,
और बेध कर निकल जाएं
ये मेरे शब्द ही समझाएं
क्यों तरंगों की तरह चलकर
मेरे अपनों को दुःख पहुंचाएं

जब खामोशी सवाल कराएं
गणित के जोड़ घटाना से लेकर,
मेरे बचे हुए उर्जा का प्रयोग कर,
मुझसे इतने गुणा-भाग कराएं,
कि संवेदनाएं कुछ न कह पायें
बस लाचारी दिखाएं, और
संवेदनशीलता भी मिट जाये

ये दोनों तब बुरी बन जाएं,
जब मेरे शब्द स्वतंत्र हो जाएं
या तो किसी खूटे से बंध जाएं
फिर इनके विचार गुणा कर के
विकृत वाक्य बन कर रह जाएं
समझें, और फिर समझाएं
क्यों मेरे शब्द जुबां से लड़खड़ाएं
और खामोशी सवाल करवाएं

                  
                    -“प्रभात”