Saturday, 29 November 2014

ना रही बुलबुल और ना ही उसका तराना है।

आँधियों के आने से वादियों का जाना है
ना रही बुलबुल और ना ही उसका तराना है

कितने खामोश हैं बैठे जंगल के राजा शेर
अब उनकी ही राहों में आदमी का जाना है

रात्रि बन चुका दिन और दिन अँधियारा सा
ये घड़ी सर्द-गर्म रात की बिन मौसम आना हैं

पर्वतों में राह बना कर सो रहे हजारों राही
ऊंचे वृक्षों की कटाई मौत का ही बहाना है

समुद्री लहरे सिमटी थी ज्वार और भाटा तक
अब ये कैसा सुनामी व तूफानी का जमाना है

हदें पार करती हैं वो ज्वालामुखी की ज्वाला 
जहाँ पर जीवन का राख में बदल जाना है
                                                   -प्रभात 

9 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (01-12-2014) को "ना रही बुलबुल, ना उसका तराना" (चर्चा-1814) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. आपका आभारी हूँ..........बहुत-बहुत शुक्रिया!

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  2. बेहतरीन.... बहुत खूब

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  3. बहुत बढ़िया प्रस्तुति ...

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  4. बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...

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