Tuesday, 4 November 2014

मेरे शब्द।

शब्द जुबां से लड़खड़ाएं
मेरे पन्नों से टकराएं
मेरी आँखों को समझाएं,
और बेध कर निकल जाएं
ये मेरे शब्द ही समझाएं
क्यों तरंगों की तरह चलकर
मेरे अपनों को दुःख पहुंचाएं

जब खामोशी सवाल कराएं
गणित के जोड़ घटाना से लेकर,
मेरे बचे हुए उर्जा का प्रयोग कर,
मुझसे इतने गुणा-भाग कराएं,
कि संवेदनाएं कुछ न कह पायें
बस लाचारी दिखाएं, और
संवेदनशीलता भी मिट जाये

ये दोनों तब बुरी बन जाएं,
जब मेरे शब्द स्वतंत्र हो जाएं
या तो किसी खूटे से बंध जाएं
फिर इनके विचार गुणा कर के
विकृत वाक्य बन कर रह जाएं
समझें, और फिर समझाएं
क्यों मेरे शब्द जुबां से लड़खड़ाएं
और खामोशी सवाल करवाएं

                  
                    -“प्रभात”

10 comments:

  1. Replies
    1. बहुत-बहुत शुक्रियां!

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  2. Replies
    1. धन्यवाद लेखिका जी!

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  3. Replies
    1. धन्यवाद आपकी टिप्पणी मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है!

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  4. क्यों मेरे शब्द जुबां से लड़खड़ाएं
    और खामोशी सवाल करवाएं।

    वाह...बेजोड़ रचना...बधाई स्वीकारें

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    Replies
    1. जी शुक्रिया यहाँ तक पहुँचने के लिए!

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