Saturday, 26 March 2016

मैं कितने सीते खोता जाऊं

अविश्वास न रहे तेरे मन में, मैं कितने सीते खोता जाऊं
अपनी मर्यादा की रक्षा में, हिंसा कैसे फैलाता जाऊं
फूल नहीं है जब देने को इतने, काटों तुम चुभते जाओ
तुम भी मुझको चुभाते जाओ, मैं भी तुमको चुभाता जाऊं
अन्धकार में दीपक जलाकर अँधेरा कैसे मिटाता जाऊं
तुम रोजाना आग लगाते जाओ, मैं दीपक जलाते जाऊं  
अचरज है मुझको ताज तुम्हारी ईटें कैसे खड़ी हुयी है
तुम मुमताज की याद बताते जाओं, मैं हिंसा बताता जाऊं
प्रेम के सौदागर बनकर मुझसे, तुमने छीना है लाज मेरा  
तुम सबको मजबूरी बताते जाओ, मैं असहाय बना जाऊं

-प्रभात 

6 comments:

  1. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार!

    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...

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  2. सार्थक प्रस्तुति...

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