Tuesday, 19 July 2016

पहाड़ियों पर खेलना चाहता हूँ

पहाड़ियों पर खेलना चाहता हूँ,
नदियों में तैरना भी,


क्योंकि नही देखा ऊंची पहाड़ियां 
और अनुभव नहीं तैरने का 
देखा है तैरते बच्चो को
सरयू के बीचोबीच
डूब डूबकर सिक्के निकालते
एक फटी कमीज में 
अपनी जिंदगी गुजारा करते हुए
मुर्दे जलाते हुए श्मसान घाट पर
उन्हें गाते हुए।
अक्सर देखता हूँ उन्हें
पहाड़ों पर जो तोड़ते है पत्थर 
और बनाते है घोसले की तरह घर
ढाबों पर काम करते हुए
उन्हें नहीं फ़िक्र
बारिश की बूंदों की 
न फ़िक्र सरकारी लाभों की
स्कूल जाने की बिलकुल नहीं
बेवजह मुस्कराने और रोने की आदत नहीं
मंज़िल पाने की फ़िक्र हो या न हो
वे कहते नहीं कभी
पहाड़ियों पर खेलना चाहता हूँ 
और नदियों में तैरना भी
क्योंकि वे कहते नहीं करते है।

-प्रभात

 

4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (21-07-2016) को "खिलता सुमन गुलाब" (चर्चा अंक-2410) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete

अगर आपको मेरा यह लेख/रचना पसंद आया हो तो कृपया आप यहाँ टिप्पणी स्वरुप अपनी बात हम तक जरुर पहुंचाए. आपके पास कोई सुझाव हो तो उसका भी स्वागत है. आपका सदा आभारी रहूँगा!