Monday 3 July 2017

जीवन में गत्यात्मकता

बहुत दिनों बाद आज फेसबुक पर लिखने आया हूँ....खासा अभाव है उस सोंच कि जिससे कुछ अच्छा लिख सकूँ. मन स्थिर है....कलम बंधी सी है...मंजिल जो मुझे आगे जाते हुए देख रही थी वह मुझे आज व्याकुल होते हुए देख रही है...नदियाँ जब रुक जाएँ, बादल न बने, रास्ते जब बंद हो जाए तो पानी को भी घुटन होने लगती है और नदी-नदी नहीं रह जाती.
देखो न सुबह सूरज देखना बंद कर दिया है मैंने...हवा जैसे रुक सी गयी हो...जीने की स्टाईल बदल गयी है इसलिए अब घर की याद मेरे जेहन में पानी बनकर तैरने से लग गये.
ऐसा लगता है कि इस गर्मीं में अपनी बगिया में लगे हरे, पीले, लाल आम तोड़े अरसा हो गया...शायद ही कभी ऐसा हो जब लग्गी लेकर या फिर खुद ही बंदरों की भांति पेड़ पर चढ़कर माटे के झोझे के साथ कुछ आम तोड़ सकूँ...ललगुदिया वाला अमरुद तोड़कर अपनी गैया को खिला सकूँ...फिर से दादा जी के साथ जाकर वो विन्नु चाचा के दूकान की पापड खा सकूँ...अपने खलिहान में गजे पुआल पर उधम कूद मचा सकूँ...बचपन की तरफ भी घूम लिया कुछ तो नहीं मिला ...
बचपन से सुना करता था कि कलेक्टर बनना नहीं तो चपरासी बनोगे ....इन दोनों में से कुछ भी तो नही बना, लेकिन कुछ बनने के चक्कर में फेसबुकिया पोस्ट लिख-लिख कर मैं पहला ऐसा साहित्यिक आदमी बन गया जो सोशल वर्क करने के चक्कर में मीडिया का हाथ पकड़ लिया, प्रेम और रोमांस पर अपठित कविताये लिखने लगा ...जो कि न तो पहले पढ़े गये थे न ही बाद में पढ़े गये...सोशल वर्क की पढ़ाई नहीं की ;लेकिन सोशल साईट्स पर खूब पढ़ाई की...इतना कि पहले मैं प्रभात के नाम से जाना जाता था आज फेसबुक की वजह से...हालांकि 24*7 घंटे रिपोर्टर हूँ लेकिन किसी सैलरी वाली दुनिया का नही बल्कि अपने वाट्स एप की दुनिया में....

.प्रभात कृष्ण के रूप में आभासी दुनिया में निकल कर सामने आ गया हूँ.......अब जब मार्कशीट में प्रभात लिखकर दिखाता रहा ..अनुसन्धान की दुनिया में गोते लगाता रहा...अनुसन्धान की दुनिया की डिग्री नहीं मिली परन्तु उसकी डिग्री पर अनुसन्धान हो गया...कहीं किसी बड़े शोध पत्र में यह रिसर्च जगह नहीं ले सका लेकिन मेरे हृदय में यह छप सा गया है...इम्पैक्ट फैक्टर नेचर जर्नल का है... बस अंतर ये है कि ये मेरा नेचर है ....जो जर्नल से किसी कम नहीं है.
बातें इतनी सी है ....जीवन में गत्यात्मकता होनी चाहिए, शायद अब आ जाएँ...
-प्रभात

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