Monday, 25 May 2020

डीजीपी लखनऊ तक का सफर

मैं लखनऊ डीजीपी ऑफिस के बाहर बिना किसी उम्मीद के अकेले एक बैनर लिए जिस पर लिखा था कि मेरे और मेरे परिवार के ऊपर कई फर्जी केस दर्ज किए जा रहे हैं पूरा परिवार यूपी पुलिस की इस तरह की तबाही से ग्रस्त हो चुका है। न्याय की गुहार लगाते लगाते अब आस नहीं बची। अब मैं आपके पास आया हूँ कि तत्काल उच्च स्तरीय जांच हो ताकि इसका पर्दाफाश हो सके। पिताजी जेल में हैं, अगर कोई कार्यवाही नहीं हुई तो अंतिम विकल्प यही है कि आत्महत्या कर लेंगे।
मेरे साथ केवल साथ देने के लिए मेरी दीदी और हंसराज कॉलेज से मेरे करीबी एक दोस्त साथ था। जो मेरे लिए रेलवे के जनरल डिब्बे में ठंड के मौसम में टॉयलेट के पास पेपर बिछा कर सोना फक्र महसूस करता था। उसके लिए मेरी चिंता उसकी चिंता थी। सुबह किसी तरह दिल्ली से लखनऊ डीजीपी ऑफिस पहुंचना मेरे लिए बहुत मुश्किल रास्ता था। अनदेखा था। मुझे न तो किसी कानून की जानकारी थी न कुछ। बस पता नहीं कहा से ध्यान आया कि गेट पर पहुंचते ही मैंने 100 नंबर कॉल पर सूचना दे दी। और कहा कि तमाम फर्जी मुकदमों को दर्ज करने और दरोगा के आतंक से पीड़ित होकर यहां धरने पर बैठ रहा हूँ और अगर मेरी मांग नहीं सुनी गई तो आत्महत्या अंतिम विकल्प है।
इतने में पीसीआर पहुंच गई। 1 मिनट के अंदर मुझे डीजीपी से मिलने को बोला गया। अंदर बिना किसी प्रवेश कार्ड के एकाएक मेरी एंट्री कराने के लिए एडीजी और तमाम लोग तैयार थे। पूरे ऑफिस में हड़कंप था। लोग पूछ रहे थे कि क्या हुआ?
एडीजी ने दरोगा को मेरी दीदी और मेरे सामने खूब सुनाया, गाली दी और कहा इन बच्चों का भविष्य दांव पर लगा रहे हो तुम बचोगे नहीं। मैं रुआँसा हो गया इतना सुनकर कि कोई अधिकारी मेरी मदद के लिए इतनी मशक्कत के बाद तैयार था। आस बंध रही थी। ऐसा लग रहा था कि मुझे कोई भगवान मिल गया हो। ऐसा लग रहा था कि उस दरोगा को मेरे पूरे परिवार को अपराधी बनाने में जिले के आईएएस पीसीएस जो एसपी डीआईजी के रूप में सबकी मिलीभगत थी। उससे ये अधिकारी बड़ी मदद कर सकता था। खैर डीजीपी के रूम में घुसने से पहले मैं वहां के माहौल से काफी खुश था क्योंकि पहली बार मैं अपराधी के रूप में भी उस पुलिसिया ऑफिस में सम्मानित महसूस कर रहा था। सिपाही मुझसे पता नहीं क्यों बड़ा प्रेम दिखा रहे थे। समझ न आया था।
थोड़ी देर में एंट्री हुई। सामने मेरे मेरे से दोगुना लंबा, मोटा आदमी और आवाज दो गुनी लाउड के साथ बैठा हुआ बैठने को कहता है- मेरे से बिना अपराध के बारे में पूछे वो पूछता है कि कहां से आये हो क्या करते हो?
मैं हैरान था लेकिन जानता था कि इन्हें। मेरी अप्लीकेशन और एडीजी की दरोगा से बातचीत जैसे तमाम जानकारियां मिल चुकी हैं। मैं गुस्सा भी हुआ कि ये कैसा अधिकारी जो मेरे मामले के बारे में पूछने की बजाय मेरे पर्सनल इन्फॉर्मेशन के बारे में जानने को उत्सुक था।मैंने बताया कि सर मैं ग्रैजुएशन का छात्र हूँ, कहाँ- ?, मैंने कहां हंसराज, किस सब्जेक्ट में? मैंने कहा- बॉटनी, उन्होंने कहा ठीक 10 बोटानिकल नेम बताओ प्लांट के मैं एक एक कार बताता गया , इतने में वे पूछ बैठे कि लीची का बोटानिकल नेम बताओ - मैंने कहा नहीं पता
। और वे जवाब दिए लीचिया साईनेंसिस।
मैं स्तब्ध था और इस इंतजार में था कि ये साक्षत्कार कब खत्म होगा, और उनमें मेरे प्रति पिता के समान ऊपर से कड़वा व्यवहार दिखा था और लेकिन पता नहीं क्यों इतना विश्वास हो गया था कि इसी कड़वेपन की वजह से इसी कोफीडेंस की वजह से यह आदमी अपने नीचे के सभी गलत अधिकारियों के खिलाफ एक्शन ले सकता है। मैं अपनी स्क्रिप्ट जो सोच कर आया था कि मुझे कैसे पूरे मामले को 2 मिनट के अंदर खत्म करना है उसकी भी बारी न आने पर खुद से वह सब कुछ बक चुका था जो मैं अंतिम उम्मीद के साथ एक अधिकारी के सामने रख सकता था। तुरंत पूरे मामले की जांच डीजीपी की देखरेख में दूसरे जिले के अधिकारियों के साथ मिलकर हुई। मुझे न्याय मिला।
आज इस अधिकारी को टीवी डिबेट में देखकर बड़ा गर्व महसूस होता है जो बड़े कॉन्फिडेंस के साथ सच को सच कहने का साहस रखता है एक ऐसे समय में जब वह रिटायर हो चुका है। उनका नाम है यूपी के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह। Dr Vikram Singh - IPS Retd Ex DGP U.P.
मैं सोचता हूँ आज अगर यूपी पुलिस और दिल्ली पुलिस के पास एक भी ऐसा अधिकारी होता तो आज जेएनयू, जामिया छात्रों को भी न्याय मिलता। ऐसे अधिकारी सरकार के दबाव में नहीं काम करते। ऐसे अधिकारी सच को सच कहने की हिम्मत रखते हैं। अब तक योगी की कुर्की जब्ती वाली स्थिति आती नहीं। अब तक पुलिस की ओर से हिंसा होने की बजाय पुलिस प्रशासन को मुझ जैसे लोग गले लगा रहे होते।
लेकिन अब भी कुछ इस तमाम तरह की विसंगतियों के बाद भी अधिकारी अधिकारी होने का और वर्दी पहनने का मतलब नहीं समझते हैं।
एक यह एक्सपीरियंस आपसे शेयर कर रहा हूँ। शेष बाद में भी।
Prabhat

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