गीता उपदेश आपने पढ़ा होगा, यह अर्जुन को
भगवान् कृष्ण द्वारा दिया गया उपदेश है।
मैं कोई उपदेश नहीं देना चाहता पर संघर्ष के उन बिंदुओं को जरूर
शामिल कर आपके लिए लाया हूँ जहाँ और जब मेरा उनसे सामना हुआ है। हर किसी के मन में
जिस प्रकार से कुछ कहने की ललक होती है, कुछ समझने की शक्ति
होती है उसी प्रकार से मेरे अंदर भी यह शक्ति विद्दमान है।
आज की जिंदगी में सभी कुछ न कुछ बनना चाहते है। जिसकी जैसी शक्ति
होती है उसी प्रकार से वह अपने आप से उम्मीद करके आगे बढ़ते है। कुछ कामयाब हो जाते
है और कुछ सतत परिश्रम से उस लक्ष्य को हासिल करने में भी नाकाम हो जाते है।
जिलाधिकारी बनने की जिज्ञासा भारत वर्ष में आज भी उसी प्रकार से विद्दमान है जैसे
पहले आजादी के बाद से ही देखी गयी थी। इस प्रकार के संघर्ष में हम जैसे लोग दिल्ली
में बनवासी बने घूमते रहते है। हर कोई पॉवर और पैसे के लिए संघर्ष करता प्रतीत
होता है। संघर्ष की उच्च स्थित में विमुखता, अपराधीकरण,
असामाजिक होना आम बात है। बेरोजगारी की हालात में लोग क्या से क्या
बन जाते है कुछ नहीं तो एक परिवार की हालत राजा से रंक की तरह हो जाती है और जो
रंक होते है वो रंक से भी दयनीय स्थिति में पहुँच जाते है। हां कुछ सफल हो जाते है
उनके बारे में कल्पना करने वाले लोग जलन और पागल से भी हुए जाते है, कुछ अपने और अपने लोगों को कोसते है, उलाहना देते है
और उपदेश भी। लेकिन सवाल ये है कि इस संघर्ष में जो उन्हें सफल मानते है वे क्या
वास्तव में सफल है? जी नहीं सफलता के जिस मायने पर आप जीते
है वह जीने के लिए ठीक है पर खुद की संतुष्टि के लिए कतई नहीं।
"कुछ बनने से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण एक अच्छा
इंसान बनने में है।"
जिलाधिकारी या कोई भी अधिकारी बनना आसान भी है मगर अच्छा इंसान वह
होगा या नहीं यह कहना मुश्किल है। यह अपने आप में अलग विचार का विषय है कि अच्छा
इंसान किसे कहा जाता है।
सफलता मिल जाने पर जो हालात होते है उसे हम खुशियां कह देते है
लेकिन क्या यह खुशिया सबको मिल पाती है? जरूर नहीं। फिर
इस खुशियों से किन लोगों के तालुकात होते है निश्चित रूप से केवल उसी की खुशियाँ
निहित होती है। परंतु मिठाईयां हम अगर सबको खिलाते है तो केवल यह मान लिया जाता है
कि बहुत सारे लोग तक यह खुशियां पहुँच गयी है। लेकिन ऐसा होता नहीं है। भिखारी को
प्रसाद दे देते है तो उसे पता नहीं होता कि वह किस खुशी में है मगर वह खुश जरूर
होता है।
त्योहारों का स्वरूप जो पहले था वह कैसा था और आज कैसा ? इस विषय से हम पूरी तरह अवगत भी है। किसी भी बहुत बड़े संघर्ष का परिणाम
हमारे त्यौहार है। जिसे हम सदियों से मनाते चले आ रहे है। संघर्ष मनुष्य की एक
आवश्यकता है और इस संघर्ष में किसी का अंत और अंत की खुशी एक परिणाम के रूप में
उभर कर सामने आता है। हमारी खुशियां आज बहुत से त्योहारों पर क्या वही है जो होना
चाहिए? नहीं बिलकुल नहीं , आज होली के
दिन भांग पीने की तुलना भगवान् शिव के भांग पीने से कर लेना आम बात है। सड़कों पर
लड़खड़ाते हुए गालियां देना और अश्लील हरकतें करना बुराई पर अच्छाई की जीत बताना हो
गया है। दिवाली पर बड़े बड़े बम छोड़कर वृद्धों को कष्ट पहुँचाना, जीवों को सदा के लिए ऊपर पहुंचा देना और आस पास के पर्यावरण को बहुत हानि
पहुँचाना दिवाली की परंपरा बताया जाने लगा है।
संघर्ष ही जीवन है मगर इस संघर्ष में नए त्योहारों की उत्पत्ति
करना हमारा मकसद होना चाहिए। लेकिन यह तभी हो सकता है जब त्योहारों के मनाये जाने
के उद्देश्यों और कारणों की तह में हम पहुँच जाए। जिस युग में त्योहारों का स्वरूप
बदल जाता है वह त्यौहार एक ढोंग बन कर रह जाता है। वह संघर्ष का परिणाम के रूप में
नहीं वह अपने मतलब के लिए मनाया जाता है। अगर आप और हम चाहे तो सैकड़ों बुराईयां है
किसी भी बुराई को दूरकर हम नए त्यौहारों के रूप में उसे आगे ला ही सकते है। यदि हम
आज के त्योहारों को इसके पुराने स्वरूप में नहीं ला सकते है तो उसके विरुद्ध आवाज
तो उठा ही सकते है। लेकिन कहना जितना आसान है, करना बहुत ही
मुश्किल है, संघर्ष करना होगा अपने आप से और अपने लोगों से ।
खासकर विचारों से संघर्ष कभी आधुनिक वैलेंटाइन के तो कभी आधुनिक करवाचौथ के।
शेष अगले अंक में..
धन्यवाद।
शेष अगले अंक में..
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