Tuesday 1 June 2021

मैं ही सोचता हूँ या आप भी?

 मैं ही सोचता हूँ या आप भी?

मैं सोचता हूँ कभी कभी। हां कभी-कभी क्योंकि लगता है कि मैं कभी कभी ही कुछ लिखता हूँ। हां तो मैं सोचता हूँ कि ये दौर क्या 1947 के पहले का है जब हमारे देश के लोग ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ समाचार पत्र में तरह तरह के उपाय करते  थे। वे अप्रत्यक्ष रूप से लिखते थे और ऐसा कुछ व्यंग्य के माध्यम से कह देते थे कि देश के लोगों को समझ आ जाता था कि किसकी बात हो रही है। वे हिंदी भाषी और क्षेत्रीय भाषाओं के महत्व को समझते थे इसलिए वे इन्हीं भाषाओं से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कुछ न कुछ प्रेस में लिख ही देते थे। कभी कविता लिखते तो कभी कहानी। ऐसा वे इसलिए करते थे क्योंकि अंग्रेज कभी भी उकसाने के आरोप में या दंगा भड़काने के आरोप में इन लेखक या पत्रकारों की गिरफ्तारी कर सकते थे।

आज सोचिए यह दौर है जब मैं अपनी अंगुली से यहां टाइप कर रहा होता हूँ तो दस बार सोचता हूँ कि कहीं किसी मेरे पोस्ट से सरकार को आपत्ति हो और सरकार विरोधी पोस्ट के एवज में मुझे देशद्रोही बता दे। कहीं उकसाने या भड़काने का आरोप न लगा दे। फिर भी मैं लिखता हूँ लेकिन सोचता जरूर हूँ कि अपनी तरफ से लिखने को लेकर हमेशा होशियार रहूं क्योंकि मैं देश का हित चाहता हूँ। सरकार का विरोध करने में मुझे दिलचस्पी नहीं है लेकिन आंखों देखी घटनाओं पर सवाल इन्हीं सरकारों से ही तो पूछा जाएगा? या फिर विपक्ष से। हां जब मैं सत्ता पक्ष के खिलाफ कुछ तर्क देते हुए लिखता हूँ तो मैं अपने अधिकारों का प्रयोग कर रहा होता हूँ उस अधिकार का जो कि नागरिक का अधिकार है। साथ ही अभिव्यक्ति और प्रेस की आजादी का जहां सवाल है। ऐसे में हमें विपक्ष के तौर पर देखने वाले लोग अगर कुछ कहते हैं तो मैं उनसे विपक्ष का आदमी होना स्वीकार करता हूँ लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं किसी पार्टी का हूँ। वामपंथी हूँ। या फिर समाजवादी हूँ। या फिर तथाकथित राष्ट्रवादी हूँ। या फिर तथाकथित देशभक्त और हिन्दूवादी हूँ। दरअसल मैं 'वादी' में कभी विश्वास रखता ही नहीं। मैं इन सबसे अलग एक इंसान हूँ और  इस देश का नागरिक भी। मैं नागरिकों के लिए सोच सकता हूँ। तो मैं हर आंखों से देखने वाली चीजों पर सवाल उठा सकता हूँ। मैं गांधारी भी नहीं हूँ कि मैं जानबूझकर पट्टी बांध लूं।

लेकिन आज हो क्या रहा है। हमारे यहां इस वक्त प्रेस की आजादी पर खतरा है? जानते हैं क्यों क्योंकि प्रेस अभी आजाद ही नहीं है। नागरिकों पर खतरा है क्योंकि हम जैसे नागरिक अभी इस मानसिकता से आजाद नहीं हुए कि सब कुछ जो देखें सीधे लिख दें और कह दें क्योंकि अगर ऐसा करेंगे तो कोई योगी मुझपर यूएपीए लगा देगा। कौन आजाद है? यही सवाल है तभी पोस्ट लिखा गया है। क्या हम वाकई आजाद हैं इनकी सोच से। हम तो अपने देश के लिए लिखते हैं पढ़ते हैं और मरना चाहते हैं लेकिन ये हमें उससे अलग करवाने में लगे रहते हैं। जब देखो तब सब प्रभाव में हो रहा है।

अगर मेनस्ट्रीम मीडिया खुद गुलामी चाहती है तो सोशल मीडिया यूजर्स गुलामी न चाहते हुए भी गुलाम बनना स्वीकार कर लेंगे।

अच्छा तो यही होगा कि हमें लिखने के लिए कुछ सोचना न पड़े। हम आपका विरोध कर रहे होते हैं इसका मतलब हम आपकी नीतियों का विरोध कर रहे होते हैं। उन नीतियों का जो संविधान के आड़े आती हुई दिखती हैं जहां बंटवारा दिखता है। जहां एकतरफा कुछ दिख रहा होता है। जहां आपकी वजह से नागरिकों के अधिकारों की रक्षा नहीं हो पाती।आप अगर सोचते हों कि आप किसी की आजादी के साथ खिलवाड़ करेंगे तो नहीं कर पाएंगे। सच बोलने वालों की कमी नहीं होगी कभी। इस देश की परंपरा रही है। बेहतर होगा कि लोकतंत्र के चार स्तंभ से जुड़े लोग अपने कर्तव्यों को सोच कर प्रगतिशील बनें।

आज न्यायपालिका से उम्मीद लगाए रहते हैं लोग लेकिन वे उतना सोच ही नहीं पाते। क्योंकि न्यायपालिका अपना भरोसा खोता दिख रहा है। संवेदनशील मुद्दों पर अपनी संवेदनाओं का प्रयोग ही नहीं कर पा रहा इसका कारण है इनमें आने वाले लोगों की चयन प्रक्रिया, वरना इतना बुरा हाल सुप्रीम कोर्ट का तो कभी नहीं हुआ। कि जनमानस कभी जब सालों में किसी एक मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के द्वारा किसी मामले के संज्ञान लेने की बात को सुनता है तो उस छोटी सी बात को लेकर मीडिया बड़ी खबरें बनाता है और आम लोग उसे कई बार पढ़ते हैं क्योंकि वह सोचता है कि आज कोर्ट ने अपना धर्म निभाया है सुप्रीम होने का तभी सरकार से सवाल किया है। इसी तरह मीडिया में जब पत्रकार कोई आकर एक बार किसी दूसरे लोकतंत्र के खंभे पर बैठे आदमी के ऊपर जमकर सवाल करता है तो उसके उस सवाल को लेकर करोड़ों लोग खुश होते हैं वीडियो वायरल हो जाती है। इसी तरह जब कोई सांसद के ऊपर या नेता के ऊपर किसी घटना को लेकर सवाल उठते हैं और वह अपनी जिम्मेदारी समझते हुए इस्तीफा दे देता है तो जनमानस में उसके प्रति इज्जत बढ़ती है। लेकिन ऐसे लोग कम होते हैं। यही कारण है कि प्रशासन में भी एसपी कलेक्टर बहुत होते हैं लेकिन चर्चा केवल कुछ की होती है।

मेरा इतना कहने का अभिप्राय बस इतना सा है कि इन्ही। चंद लोगों में से हम लोग भी आते हैं जो जिम्मेदारी समझते हुए सवाल करते हैं। खुद को जोखिम में डालकर। लेकिन जरूरी ये है कि चारों लोकतंत्र के स्तम्भ अपनी जिम्मेदारी समझें एक दूसरे पर सवाल करें और आगे बढ़ें ताकि कोई भी नागरिक जनता, आम लोग सीधे सवाल करें और उन्हें किसी चीज का डर न लगे।

#प्रभात

Prabhat

28 may, 2020

 

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