तुम्हारी इबादत है जो
मुझसे अब तक हुयी
अब तुम्ही बताओ तुम
क्यों चुप रही
मैं जमीं, सितारें और
तुम आसमां हो गयी
इन चुभे काटों को आकर
भिगों गयी
मेरे आईनें में तुम सामने
ऐसे नज़र आयी
मेरी आँखे भी तुम्हें
छूकर चली आयी
तुम्हें ढूढ़ते-ढूंढ़ते
शबनम भी शरमा गयी
नयनों से निकलकर पत्तों
पर छा गयी
हमसे जो अब तक तुमसे कुछ
बातें हुयी
उनकी यादों में मेरी
गहरी साँसे हुयी
सिलसिला यूँ ही इबादत की
चलती गयी
तो फिर क्यों न कभी मुलाकातें
हुयी
तुम्हारे नाम पर राते और
करवटें लेती रही
रात कटती गयी और सुबह
होती रही
तुम्हारी वजह फिर दिल नाम
मेरा कह गयी
तूफ़ानों से रुकी साँसे
भी चलती गयी
मैं मीरा और तुम कृष्ण
सा माकूल बन गयी
मेरे ह्रदय में आकर अब
तुम बस गयी
-प्रभात
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-05-2016) को "फिर वही फुर्सत के रात दिन" (चर्चा अंक-2334) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार
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