Saturday, 21 May 2016

खुद को गाता हुआ पाया


तुम मुझे देख कर कुछ  कह पाये मैं तुम्हे देख कर कुछ  कह पाया
ये फैसला वक्त का वक्त पर छोड़ मैं अभी तक तुम्हे  लिख पाया
गूगल साभार 

जानते हो उस दिन क्या हुआ तुम आयी हवाओं के चलने की तरह,
मुस्कराती हुयी मंद गति से शीतलता का एहसासछू लेने की तरह,
कुछ देर रुक कर उड़ गयी तुम, वो बेचैन बादल के झोकों की तरह,
मैं जब खिड़की से उस वक्त झाँकालगा तबतुम अभी बुलाओगी 
मैं जब तुम्हारे पीछे आया तो तुम्हारी कमी देख खुद को तनहा पाया
अंतिम मुलाकात में तुम्हें देख कर, कुछ दूर आकर, तुमसे ही  मिल पाया
है अफ़सोस मुझको भी और तुमको भी, हमारी पसंद ही खुद को जुदा पाया
लगता है व्यर्थ में, सारा जहाँ तुम्हारा इंतज़ार करता है
तुम वो शाम हो अगर वहां की तो मैं तो हूँ तुम्हारे बाद का  
मालूम तुम्हे सब कुछ था और मुझे भी, पर तुम्हारी ख्वाहिशे न जान पाया
 हुआ हासिल कुछ और मगर, तुम्हारी तरह ही खुद को गाता हुआ पाया
-प्रभात



No comments:

Post a Comment

अगर आपको मेरा यह लेख/रचना पसंद आया हो तो कृपया आप यहाँ टिप्पणी स्वरुप अपनी बात हम तक जरुर पहुंचाए. आपके पास कोई सुझाव हो तो उसका भी स्वागत है. आपका सदा आभारी रहूँगा!