कहते है तुम बगिया में अब भी उसी पेड़ के छाँव बैठी
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जिस दुपहरिया में तुम मेरे लिए लेकर कुछ आम बैठी
पहचान कराई तुमने मुझको तोते और कौए से भी
बगिया के सारे फल और उनको खाते प्यारों से भी
आसमान के तारों को तुमने अहसास कराया था
बादल से गिरते बर्फ को उठा -कर खिलाया था
हवा के झोकों से गिरते आम, आंवला, बेल
बड़हल, जंगल जलेबी, और गिरते उनके फूल
कहते थे जैसे तुम आओ बाबू मेरे साथ चलो
मैं चलता गिरता और कहता गोंद में ले लो
मुझको तुम लेकर जैसे अब भी उसी पेड़ के छांव बैठी
कहने को वो शब्द नहीं पर लेकर वही जज्बात बैठी
भेजा था मुझे दूर जब मैं हंसा था और फिर रोया था
तुमने अपने आंसुओं को छुपा-छुपा के खोया था
तुम बात नहीं करती पर दुलार उतने वही पुराने थे
बस अंतर इतना था कि प्रेमाश्रु अब सिरहाने थे
आज कहीं पर लगता है जैसे तुमको मैं आने वाला हूँ
लगता है तुम्हारा प्रेम देखकर मैं घर में रहने वाला हूँ
और इसीलिये तुम लेकर सारे दिनों का हिसाब
करने को कुछ बात और अपने प्रेम का विश्वास
कहते है तुम आज सब भूल मेरे लिए कुछ दिन निकाल ले बैठी
आज फरा-खीर तो कल गुझियाँ और बेसन का पकवान ले बैठी
होता हूँ जिस दिन उदास मैं, किसी वजह निराश मैं
तुमसे बातें करके कर जाता हूँ ये सब
परित्याग मैं
याद करता हूँ जब होता था कभी परेशान मैं
अधियारी रातों में रजाई में निराश मैं
उन रातों की भी नींद हमारी तुम्हे नहीं सुला पाती थी
लेकर सारी बात कलह का सुलह प्रेम से करवाती थी
छिपाया भी उन बातों को जो तुम्हे भयभीत करते थे
होकर भयभीत वही बताया जो मुझे हौंसले देते थे
कहते है आज प्रसंग वही, रात वही, माँ रूप वही ले बैठी
मैं करता हूँ वो सब कोशिश पर समय ही कुछ श्रृंगार ले बैठी
-प्रभात
Nice Poem
ReplyDeleteDynamic
Thanks:-))
Deleteमदर्स डे की हार्दिक शुभकामनाओं सहित , " ब्लॉग बुलेटिन की मदर्स डे स्पेशल बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteमेरी पोस्ट शामिल करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया
Deleteसुंदर रचना बढ़िया पोस्ट ...
ReplyDeleteपधारने के लिए धन्यवाद
Deleteप्रशंसनीय
ReplyDeleteBahut sundar aur satik prastuti
ReplyDeleteयहाँ तक आने के लिए धन्यवाद सर
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteआपको बहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteहमारा कितना ख्याल रखती हैं प्रकृति . तभी तो उसे माँ कहा गया है
शुक्रिया..सही ही कहा आपने
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