Thursday, 18 July 2013

अब तक बातें मुहब्बत का करता आया हूँ

अब तक बातें मुहब्बत का करता आया हूँ 
Prabhat (प्रभात)
इस रीत का उनसे बखान करता आया हूँ 
मिजाज़ लहरों से उनका  बदलता आया हूँ 
हर लम्हों को उनसे जोड़ता आया हूँ 

खुली जुल्फों में जब से उनको देखा 
मैं तब से बंसी प्रेम का बजाता आया हूँ 
जवन हवा में खुद को संभाला जब 
तभी से उनको देखता आया हूँ 

कितने कांटें चुभे इस प्यार में मगर 
नम्य पलकों पर सपने सजाता आया हूँ 
जिन्दगी खुद से बात कर पाती है इतनी 
हर लम्हों में उनसे मिलता आया हूँ  

उनके निहारने की कल्पित माध्यमों की  
मुस्कराहट आईने पर बिखेरता आया हूँ 
भटकते दृश्य में जुटे रहे फिर भी 
शुरू से गजल गुनगुनाता आया हूँ......

-प्रभात 

Wednesday, 10 July 2013

बात बदलते हैं, ठीक उसी प्रकार से जैसे इन दिनों समय बदल रहा है.

यह एक प्रेम ही है जो मुझे उस किनारे तक खींच लाता है जहाँ सुन्दर दृश्य तथा उसकी गोंद में बैठे  केवल वे वर्ण दिखते है जो अंतर्मन को शांति भाव का बोध कराते है.. विश्वास नहीं होता, हर पल, हर सन्देश, हर वाद-विवाद  की स्थिति में मैं प्रछन्न वाणी और उसको सजीव रूप में किसी ग्रन्थ के रूप में लिखा पाता हूँ या उसे ऐसा करने की पूर्व कल्पना भविष्य के रोचक उद्देश्य के लिए कर लेता हूँ. अक्सर मैं दस-बीस वाक्य गूंथ लेता हूँ, ग्राह्य करता हूँ और फिर उसे लगन से संकलन करता हूँ. यहाँ तक सब ठीक ठाक होता रहता है परन्तु वाहक प्रक्रिया द्वारा लेखनी का यह भाग जो आप तक कभी यूँ ही अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप में पहुँच जाती है....यह कई दिनों बाद ही संभव हो पाता है. शायद इसलिए क्योंकि मैं तब उन बीस वाक्यों को मिटा देता हूँ और उनके पीछे तर्क होता है कि यह और बाद कि कड़ी है, अभी मुझे दूर होना चाहिए इस कहानी से... क्योंकि मैं खुद ही एक बैलगाड़ी का पहिया हूँ. इस बैलगाड़ी को चलाने के लिए उन बैलों का ही योगदान है जो किसी कृषक/महावत द्वारा मार मार कर उसकी इच्छा के विरुद्ध खेये जाते  है और पहिया चलता रहता है, एक समय होता है जब यह पहिया रुकने को होता है और कृषक नीचे आकर देखता है कि अब यह पहिया अगली ठंडी में अलाव के रूप में काम आयेगा. अब इस पहिये को अगले ठंडी तक रखना होगा.

बात बदलते हैं, ठीक उसी प्रकार से जैसे इन दिनों समय बदल रहा है. कभी बारिश, बाढ़ तो कभी तूफान और इतना ही नहीं एक ऐसी आपदा जो रात भर में पूरी धरा को झकझोर देता है - भूकंप.
कुछ जीव रंग बदलते है, तो हम जैसे जीव मन बदलते है-पूरे साल का नक्शा अपने दिमाग में रखते है. जब जहाँ पहुचना हो उस नक्शा का सहारा लेते है कभी सोचता हूँ यहाँ प्रकृति कि देख रेख में हूँ, कभी सोचता हूँ कि प्रकृति मेरे देख रेख में है.....कारण यही है कि हम मन बदलते है आस पास के लोगों, चीजो को देखकर. इसलिए मेरी बीस लाईने भी संकलन बॉक्स से आप तक पहुचते-पहुचते कहीं मेरे मन के साथ ही लौट जाती है.

मेरी कोशिश है जल्दी ही सुनहरे भविष्य के साथ,  पूरे मन से और पूरी लगन से मैं अपनी बातों के साथ आप तक दिखूंगा.............

Thursday, 27 June 2013

पुरानी परम्परा के चक्र अब यहीं रुक गए!

जो कुँए पानी रखे थे, वे अब इसको खो दिए
पुरानी परम्परा के चक्र अब यहीं रुक गए!
उन  बैलों की घंटी से जागना तब होता था
आज उन्ही के रोनें की फिक्र नहीं करते है
खेत हरे भरे अब घासों से लगते हैं
अब उनकी मिट्टी  ने अपने गुण छोड़ दिए
आधुनिकता की परिभाषा ने मेरे गाँव बदल दिए!

सड़कों  से दूर रहकर झोपड़ी में सोते थे
आज की एसी पंखों से दूर कहीं होते थे
आवाजें नैसर्गिक जीवों के होते थे
अब तो हर सड़कों ने गाँव गाँव जोड़ दिए
पशु-पक्षी दूर हुए मोटरगाड़ी का नाम दिखे
अब शहरों की परिभाषा ने मेरे गाँव जोड़ लिए!

पेड़ों की टहनियों में घंटों सुस्ताते थे
वे फलों के सतरंगी रंगों में दिखते थे
हल्की हवा और फुहारों से धो उठते थे
अब पेड़ काले कृमि व रसायन से नहाते हैं
हरे भरे पेड़ों की जगह अब घर की दीवार लिए
अब पेड़ों की परिभाषा नें खम्भे को स्थान दिए!

गाँव के सभ्य समाज में दिए जब जलते थे
फसलों के कटनें पर लोकगीत जब सुनते थे
पैरों की खनखन से शाम का समां जब बंधता था
सुसंस्कृति बनाने का सपना तब होता था
अब आतिशबाजी की आवाजों पर पैरों के रुख मोड़ दिए
लोकगीतों की धुन को पैसों से बेच दिए
अब जीनें की परिभाषा नें घर के बर्तन अलग किये 
जीवन के मूल्यों को जब चाहे बेच दिए !

                                        "प्रभात"


Tuesday, 25 December 2012

दिल्ली से बनारस


यह जो प्रथा है- नमस्कार कहने की, इसी को स्वीकार करते हुए मै आप तक पहुँच गया हूँ- इस ब्लॉग और फेसबुक के  माध्यम से। नमस्कार ही यहाँ क्यों? इसलिए क्योंकि यहाँ सुबह है या शाम यह पता लगाना व्यावहारिक  तौर पर मेरे लिए असंभव प्रतीत होता है। वर्ष 2012 का मेरे छोटे और बेहद महत्त्वपूर्ण सफ़र की शुरुआत और अब समाप्ति भी मेरे रेल के सफ़र से हो रही है। ऐसा लगता है अभी भी मै भारतीय रेल शिवगंगा के एक डिब्बे में कैद हूँ, इस धुंध और ठंडी के सफ़र का आनंद केवल मै ही ले रहा हूँ। यह मेरा अभी के लिए अंतिम अवसर है जब आपसे मै  इन्टरनेट के माध्यम से  रहा हूँ।
मै 24 दिसंबर को मेरी यात्रा शुरू होनी थी मेरा यह दिन पूरी आजादी के साथ बीता।दिल्ली के कुछ बीते दिनों को और बिताये स्थानों को यहाँ मिले कीमती लोगों के साथ मिलकर मेरा यह दिन यादों से पूरी तरह सराबोर रहा। मेरी ट्रेन 7.00  बजे सायं को प्रस्थान करनी थी दिल्ली से बनारस के लिए। स्टेशन पर पहुँचने पर पता चला। ट्रेन अपने निर्धारित समय से 14 घंटे देरी से चल रही है, असुविधा के लिए खेद है। भारतीय रेल की मंगल शुभकामनाओं और हमारे दोस्तों के शुभकामनाये। ट्रेन अब इतनी देर को यहाँ से चलनी थी की मै इंतजार नहीं कर सकता था। संयोग था की मुझे मेरे दोस्त की मदद से एक जगह  के लिए मिल गयी, जामा मस्जिद के पास थोडा वक्त बिता मैं स्टेशन दुबारा 11.00 बजे रात्रि पंहुचा अब ट्रेन के चलने का समय 3.30 बजे अगले दिन सुबह कर दिया गया था। मेरा लगभग 5 घंटे फिर इंतजार में ही बीता। यह एक अच्छा वक्त था जब अब ट्रेन लेट नहीं हुई नहीं तो इसका रद होना तय था।  
दिल्ली स्टेशन से ट्रेन अब सुबह 5 बजे चली, मंद बैलगाड़ी के चाल से, मानो ऐसा लग रहा हो कि रेल को ठण्ड ने अपने अंकुश में ले लिया हो। कुछ न करते हुए मै अपने कीमती समय को कुछ लिखने और पढने में ही बिता सकता था। 

"एक मूर्ती साथ नहीं, फिर क्या यहाँ पत्थर जो पूजे जाते हैं,
मूक धरती है तो क्या यहाँ सब ईश से जाने जाते हैं।
भौतिक बातों में नहीं तो क्या
                  यहाँ सब स्वप्नों में जब मिल जाते हैं,
अधिशेष मिलन की हर यादें बस, जो यादों में जाने जाते हैं।"


दोस्तों, मेरा यह शायद अंतिम नहीं बस अभी के लिए अंतिम अवसर होगा जो यहाँ (ब्लॉग पर) आपसे मिल रहा हूँ, कुछ दिनों के लिए मेरी तरफ से विदा।
जरूर मिलेंगे लेकिन कब यह समय बताएगा, खैर आप मुझे मोबाइल से जरूर याद कर सकते है, यहाँ न मिल पाने के लिए मुझे खेद है।