Wednesday 10 July 2013

बात बदलते हैं, ठीक उसी प्रकार से जैसे इन दिनों समय बदल रहा है.

यह एक प्रेम ही है जो मुझे उस किनारे तक खींच लाता है जहाँ सुन्दर दृश्य तथा उसकी गोंद में बैठे  केवल वे वर्ण दिखते है जो अंतर्मन को शांति भाव का बोध कराते है.. विश्वास नहीं होता, हर पल, हर सन्देश, हर वाद-विवाद  की स्थिति में मैं प्रछन्न वाणी और उसको सजीव रूप में किसी ग्रन्थ के रूप में लिखा पाता हूँ या उसे ऐसा करने की पूर्व कल्पना भविष्य के रोचक उद्देश्य के लिए कर लेता हूँ. अक्सर मैं दस-बीस वाक्य गूंथ लेता हूँ, ग्राह्य करता हूँ और फिर उसे लगन से संकलन करता हूँ. यहाँ तक सब ठीक ठाक होता रहता है परन्तु वाहक प्रक्रिया द्वारा लेखनी का यह भाग जो आप तक कभी यूँ ही अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप में पहुँच जाती है....यह कई दिनों बाद ही संभव हो पाता है. शायद इसलिए क्योंकि मैं तब उन बीस वाक्यों को मिटा देता हूँ और उनके पीछे तर्क होता है कि यह और बाद कि कड़ी है, अभी मुझे दूर होना चाहिए इस कहानी से... क्योंकि मैं खुद ही एक बैलगाड़ी का पहिया हूँ. इस बैलगाड़ी को चलाने के लिए उन बैलों का ही योगदान है जो किसी कृषक/महावत द्वारा मार मार कर उसकी इच्छा के विरुद्ध खेये जाते  है और पहिया चलता रहता है, एक समय होता है जब यह पहिया रुकने को होता है और कृषक नीचे आकर देखता है कि अब यह पहिया अगली ठंडी में अलाव के रूप में काम आयेगा. अब इस पहिये को अगले ठंडी तक रखना होगा.

बात बदलते हैं, ठीक उसी प्रकार से जैसे इन दिनों समय बदल रहा है. कभी बारिश, बाढ़ तो कभी तूफान और इतना ही नहीं एक ऐसी आपदा जो रात भर में पूरी धरा को झकझोर देता है - भूकंप.
कुछ जीव रंग बदलते है, तो हम जैसे जीव मन बदलते है-पूरे साल का नक्शा अपने दिमाग में रखते है. जब जहाँ पहुचना हो उस नक्शा का सहारा लेते है कभी सोचता हूँ यहाँ प्रकृति कि देख रेख में हूँ, कभी सोचता हूँ कि प्रकृति मेरे देख रेख में है.....कारण यही है कि हम मन बदलते है आस पास के लोगों, चीजो को देखकर. इसलिए मेरी बीस लाईने भी संकलन बॉक्स से आप तक पहुचते-पहुचते कहीं मेरे मन के साथ ही लौट जाती है.

मेरी कोशिश है जल्दी ही सुनहरे भविष्य के साथ,  पूरे मन से और पूरी लगन से मैं अपनी बातों के साथ आप तक दिखूंगा.............

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