जुल्म सहने की आदत बना ली है
अब तो तुम बस सताते रहो
कभी तो इस काबिल बनेंगे
माफ़ करने के भी काबिल नहीं रहोगे
क्योंकि बदले की भावना होगी
पता है जान देंने पड़ेंगे किसी को भी
मुझे जान लेना भी कम पड़ेगा
बेचैन है हमारे इरादे भी समय बगैर
जल्दी ही आ जाए अगर
सुधर जायेगी सारी बस्ती यूँ ही पल में
हर घर में दिया जगमगाएगा
प्यार में न जाने ये रुलाई कैसी है
अब बस तुम रुलाते रहो
लहू जल रहा है नस नस में अब तो
दुश्मनों तुम आतंक मचाते रहो
भूलेगी नहीं ये वर्षों की जिंदगानी
जुल्म ही जुल्म क्यों न ढाते रहो
जुल्म सहने की आदत सी बना ली है
अब तो तुम बस सताते रहो
-प्रभात
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (26-08-2015) को "कहीं गुम है कोहिनूर जैसा प्याज" (चर्चा अंक-2079) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत-बहुत आभार!
Deleteसिर्फ एक शब्द ...लाज़वाब !
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया ,,,,,,,,,,,,,,,लगातार आपसे इस प्रकार का सहयोग अपेक्षित है!
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