Monday, 23 September 2019

नींद जब टूट जाती है


बहुत दिन हुआ शायद लिखे मुझे कुछ नया।
लिखा भी तो कुछ रचनात्मक, सृजनात्मक और भावनात्मक न लिखा।
जो भी रहा शायद पन्ने पर न उतर सका।
आज लिख रहा हूँ फिर से तुम्हें क्योंकि तुम्हें लिखकर मैं इन सबको जाहिर कर सकता हूँ।

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नींद जब टूट जाती है, पंखे जब घूमने बंद हो जाते हैं
पार्क और मेट्रो की ओर देखता वही चेहरा याद आ जाता है
हां वही चेहरा जिसे देखने के लिए घंटों मैं इंतजार करता था
वही चेहरा जिसे न सामने पाने पर किसी से पूछना पड़ता था
और पूछने पर बहाना बनाना पड़ता था कि जैसे तुमसे मेरा कोई नाता ही न हो
इस तरह की विवशता कि जिसमें तुम्हारे सामने होने पर भी मैं आंखों से टाल देता था
या यूं कहें कि हमेशा तुम्हें इग्नोर ही करता था
लेकिन तुम्हारे जाने के बाद और उस समय भी जब इग्नोर करता था
बहुत देर तक गहराई से तुम्हारे आत्मा तक पहुंचने की कोशिश करता था
घंटों तुमसे बातें करता था और रह रह के खुद ही मन ही मन हंस लिया करता था
फिर तुमसे कुछ कहना भी चाहता था, लेकिन पहले तो कहा नहीं
और जब कहा तो तुमने सुनना ही बंद कर दिया
अविश्वास की खाई ही गहरी हुई और लगा कि तुम्हारे सामने खुद को सही तरीके से रख देने के बाद भी
कुछ कमियां रह गईं
इसलिए ही मेरे चेहरे के भाव को समझना क्या उसे खोल के रख देने के बाद भी
मैं तड़पता रहा और तुम उनसे कुछ जाहिर ही न कर सके
कहते हैं कि जहां मुझे मौन होना था वहां तुम मौन रहे
और जहां मुझे बोलना था वहां खुद ही बोल लिये
कुछ छूटा भी तो सामने आया कभी कुछ कहने
तो कह नहीं पाया ऐसा लगता है
लेकिन सच कहूं सब कह दिया
जिसे तुमने सुना शायद नहीं
या सुनकर रोज याद करती हो
मेरी तरह
शायद यही वजह है कि अब भी दिल तेजी से धड़क उठता है
चेहरे पर खामोशी आ जाती है
आंखों में एक काला सा धब्बा
और वही जाती हुई मेट्रो, पार्क और कैब
हो जाता है सब कुछ असामान्य
बस तुम्हारा नाम सुनकर
बस तुम्हें आंखों के सामने यादकर
बस यादकर!


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