Tuesday 31 January 2017

रागिनी तुम पत्थर हो?

रागिनी तुम पत्थर हो?
प्रिय रागिनी
         आज रागिनी अपने आपको संभाल नहीं पा रहा हूँ और मेरी प्यारी रागिनी आज तुम्हे मैं पत्थर बता रहा हूँ। तुम्हारा न तो अपमान कर रहा हूँ न ही तिरस्कार। भला कोई प्रेमी कैसे अपनी प्रेमिका का अपमान कर सकता है और किसी के द्वारा करते हुए देख सकता है।
गूगल आभार 
देखो रागिनी, आज तुम जिस रूप में हो, उसमें तुम्हे पत्थर न कहूँ तो क्या कहूँ? तुम अपने आपको पत्थर नहीं मानोगे। लेकिन क्या ये सही नहीं कि तुम निर्जीव पत्थर की भांति ही हो। मेरे और तुम्हारे संवाद में बस इतना ही तो है मैं कहता हूँ और कहता रहता हूँ। संवाद इसलिए होता रहता है कि तुम कुछ बोलते नहीं लेकिन मैं अपनी सकारात्मक भावनाओं को हमेशा तुम्हारे उत्तर के रूप में ले लेता हूँ । तुम पत्थर ही तो हो कि तुम अपनी भावनाओं का इजहार करते ही नहीं और करते भी हो तो बस वैसे ही कि मैं अपना हाथ गुस्से में आकर तुम पर उठा लेता हूँ और तुम मुझ पर उलटे ही चोट कर देते हो।तुम प्रतिक्रिया देते भी हो तो ऐसी प्रतिक्रिया कि मेरी हिम्मत नहीं होती कि तुमसे दुबारा बात करूँ।
तुम पत्थर हो लेकिन वह पत्थर जिसे मैं पूजता आया हूँ। विश्वास किया हूँ। और उसके बाद भी तुमने मुझे हर विवशता में अपने आप से अलग किया है। मैं तुम्हारी शरण में तब तब गया हूँ जब जब मुझे अंदर से बहुत अकेलापन महसूस हुआ है। ऐसा हुआ भी है कि थोड़ी देर के लिए स्वीकार भी किया परंतु तुमने मुझे अंत में पत्थर ही अपने आप को बता डाला कि बात कितनी भी कर लो पर मैं तो पत्थर हूँ और पत्थर बन कर रहूंगी। क्या फायदा, तुम क्यों पूजते हो?
यह भी सही ही है आखिर जब तुम्हे पूजने वाले लोगों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जाए तो आपकी भक्ति के लिए एक भक्त कम भी हो जाए तो क्या होगा। रागिनी! तुम्हारे साथ भी कुछ ऐसा ही तो नहीं है? लगता है और तुम हमेशा ऐसा दिखाने का प्रयास करती आयी हो।
किसी पत्थर को पूजना और तुम्हारी खुद की महत्ता को न समझना रागिनी ठीक वैसे ही है जैसे एक निर्जीव पत्थर करता आया है। तुम तो एक ऐसी पत्थर के समान हो जो अपने आप में हर तरीके से सम्पूर्ण हो। तुम्हें क्यों ऐसा नहीं लगता कि किसी प्यार को ठुकराना बहुत ही गलत बात है। अगर वह प्रेम पूरी श्रद्धा से की गयी हो। जिंदगी में जो भी होता है वह अच्छा ही होता है। शायद तुम्हारी भी गलती न हो ऐसा भी हो सकता है कि तुम वही निर्जीव पत्थर हो जिसमें कोई भावना न हो, और जो केवल नदी में पानी के बहाव को रोक देता हो। अच्छे अच्छे लोगों को बैठने के लिए जगह देता हो और थोड़ी देर के बाद बिछुड़ जाता हो। लेकिन एक बात सोंचो कि ऐसे बहुत से लोग मिलते है कि वह बहती नदी में पास जाकर पत्थर पर बैठ जाते है और आनंद लेते हुए ऐसा सोंचते है कि पत्थर पर बैठकर कुछ तस्वीरें ही ले लिया जाए। और ऐसा करने के बाद वह पत्थर एक तस्वीर के रूप में उनके पास आ जाती है और वे पुनः दूसरी तस्वीर दूसरे पत्थर पर बैठकर खिचातें है और वे यह भूल जाते है कि वह तस्वीर कभी मैंने उस पत्थर के साथ ली थी। मैंने तो उस पत्थर को दिल में बिठा लिया है। मैं तो उसी एक पत्थर की शरण में दिन रात गुजारना चाहता हूँ। लेकिन इसलिए कि तुम पत्थर हो? ऐसा करने में असमर्थ हूँ ।
कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम सच बोल रही हो कि तुम पत्थर हो? और ऐसा करने के लिए विवश मात्र हो। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है और तुम पत्थर नहीं हो, तुम्हारे हजार बार भी यह कहने पर कि मैं पत्थर हूँ, ऐसा मानने को तैयार नहीं हूँ। परंतु शायद कभी कभी भक्त भी नाराज हो ही जाता है । जब मर्यादा पुरुषोत्तम राम समुद्र के पास बैठे हुए मार्ग पाने के लिए तपस्या करते रहे और उन्हें भी 3 दिनों बाद कुछ भी हाथ नहीं मिला केवल निराशा । और अंत में उन्हें ब्रह्मास्त्र चलाने के लिए धनुष निकालना ही पड़ा। तो मैं कौन हूँ ? मेरी भी नाराजगी लाजमी है। परंतु मैं धैर्य का सागर भी हूँ, और हर तरीके से दयावान और प्रेमी तो मैं ब्रह्मास्त्र भी चलाऊंगा तो भगवान राम जैसे ही, कि उस दिशा में अहित होगा जहाँ जरुरत होगी और औषधि उगेगी लोगों का कल्याण भी होगा। उससे इस पृथ्वी पर रह रहे किसी भी जीव का अहित नहीं होगा। शायद यही मेरा प्रेम है.
तुम्हारा प्रिय
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प्रभात

२७ जनवरी, १७

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