Thursday, 24 August 2017

जिसे मैं सुनाऊँ

एक आह रुक गयी है, सीने की सीने में 
वो सुनने वाला ही कहाँ, जिसे मैं सुनाऊँ

मेरे खिड़की से आज भी वो दिखती है
उसके लौट के आने का इशारा कहाँ
निमंत्रण दर दर दिया रूह तक आने का
वो लौट जाती है, थोड़ी दूर आने के बाद
कचोटते है बार- बार, संवाद के तीखे शब्द
वेदना में लिख देता हूँ, पर बता न पाऊँ

हार मान लिया मैंने सच्चाई बताते-बताते
लम्हें निकल गए, छूट गए वादे- इरादे
बेशब्री था जिसका हमारी जिंदगी में 
आज, कल हो गया, हम अधूरे रह गए
राहें अलग भी न हुई, मंजिल वही रहा
चाहता हूँ कहूँ, तुमसे ही न कह पाऊँ

सोने लगा हूँ हर पल दिन में जख्म लिए
भींगता है स्वप्न दिन- रात, गहरा घाव है
मुनासिब नही ज़िंदगी में क्या, हवा चले
चैन से रहूं और पहले जैसे दिन रात ढले
खामोशी में है बरकरार, मेरा दिल सच्चा है
कह देना, शायद मैं कभी न समझा पाऊँ

-प्रभात
तस्वीर गूगल साभार


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