Thursday, 29 September 2016

यादें गाँव की

फोटोग्राफर: प्रभात 
 "यादें गाँव की"
अपने गाँव की याद करते हुए
मैं खलिहान की ओर चला गया
लगता है वही खलिहान जो घर के पास था
दादा जी ने बनाया था 
जिसमें गेहूं लाकर रखा गया था
वही डांठ के साथ जो आया था 
एक कोस दूर से 
पतले मेड़ों के ऊपर से चलकर
गाँव की बूढ़ी औरतों के सहारे 
मजदूरी में वो गेहूं के डाँठ ही लिया करते थे
दो दिन पहले से खलिहान के पास खड़ा होता था,
फसल दवांई के लिए चौधरी साहब का थ्रेशर
पुरानी मशीन जिसे दो दिन में गाड़ा जाता था
और पट्टा चढ़ाया जाता था 
बड़ी कढ़ाई में पानी भी भरे जाते थे
खेलते हुए मैं भी पहुँचता था उसके पास
और ध्यान से देखता रहता था
सीन पसीन गर्मी में लोगों को 
देखता हुआ फूस के मकान में पहुंचा
दादा जी सुस्ता रहे थे
शायद पसीना सुखा रहे थे
अब वो जाने वाले थे गायों के 
पूरे गोल के साथ, बिना सोटे के 
कारियवा, ललकी उजरका, गोलुआ 
मरकहिया, सिधकी जैसे दर्जन गाय
प्यार से आगे- पीछे चलते थे,
दूर तलक चरते थे 
मैं भी कभी कभार जिद कर 
दूर सिवान में चला जाता था
निहारने खेतों को, फलों को देखने
गायों के साथ कूदने
बागों के बागवानी के बाद की 
हरियाली देखने गाय के झुण्ड के साथ
दादा जी के पास पेड़ के नीचे बैठ
अनर्गल बाते करता और हर बार
हँसते, डांटते गायों के साथ 
आ जाता था घर
अब लूँ के बाद का समय शाम का था
रात को दो चार ढिबरिया जल गई थी
दूध दुहने के बाद गरम कर 
पीने के लिए कहा जाता था प्यार से
टाला करता था बात, तर्क वितर्क के साथ
उनके शब्दों में प्यार के साथ बेवकूफी
नहीं पीया कभी कटोरे भर दूध
काश अब पी जाता! सोंचता रहा...
आज तो धूल का दिन है
दादा जी के साथ सोने को नहीं मिलेगा
बाबू आ जाओ! आज नहीं सुना
क्योंकि मैं घूमता हुआ फिर से वही आ गया
फीके प्रकाश में धुल- धुआं की तरह उड़ता रहा
गेहूं की बालियों की सुगंध के साथ
बाल्टी भरता थ्रेसर से निकलता अनाज
यह सब देख शीतल हवा में 
मुझसे रहा न गया
डाँठ से सींक निकालकर
पानी से भरने एक गिलास 
आँगन में नल के पास आ गया
सुरकता रहा कुछ समय पानी 
लगा बदला सा था मन का स्वाद
पानी था पर यादों की खुशबू के साथ
लगा मैं पी गया शरबत जैसा एक बार में
तब नहीं पता था जूस पीने के लिए 
प्लास्टिक पाइप भी इसी तरह की होती होगी
अब वहीं आँगन में रुक गया 
दादी के पास, तुलसी के पेड़ के नीचे 
दिख रही थी, घी के दिए जलाते हुए 
लगा मैंने उनका हाथ पकड़ लिया
क्या कहूँ अब तो मैं क्या कहूँ
अपनी यादों में खो जाऊं,
प्यार भरे बचपन में लौट जाऊँ
हाँ अब तो ये यादें नहीं होती खत्म
क्योंकि यादें तो यादें होती है
कभी न भूलने वाली बातें होती है...
प्रभात "कृष्ण"


6 comments:

  1. Replies
    1. बहुत अच्छा लगा, बहुत दिनों बाद आप की टिप्पणी मिली।

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  2. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-10-2016) के चर्चा मंच "आदिशक्ति" (चर्चा अंक-2482) पर भी होगी!
    शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    Replies
    1. आपको भी नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएं और बहुत-बहुत आभार।

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  3. मुझसे रहा न गया
    डाँठ से सींक निकालकर
    पानी से भरने एक गिलास
    आँगन में नल के पास आ गया
    बिलकुल सही कहा आपने..बहुत सटीक अभिव्यक्ति ..आभार !

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    1. आप हमेशा ही मेरा उत्साहवर्धन करते रहे है आपका आभार

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