ऐसा लगता है आज मेरा प्यारा बचपन लौट आया है. मेरी माँ कटोरी
में सरसों का लेपन/बुकवा लेकर लगाने के लिए आज फिर मेरे पास ही बैठी है. आँगन में
उसी जगह चटायी बिछी है जहाँ पर आस-पास की क्यारियों में लगाए खूबसूरत फूलों से
खुशबूं आ रही है और उनके पास मधुमक्खियाँ, तितलियाँ; मेरी माँ के दुलार के साथ आस पास
खेल रही हैं. आखिर ये एहसास हो भी क्यों न! आज जो रविवार है यानि की हफ्ते भर का
एक दिन सन्डे का. अभी-अभी मां के आँचल में अपना चेहरा छुपा रहा हूँ और कह रहा हूँ
माँ मेरे बाल देखिये छोटे है न? लबों पर हल्की मुस्कराहट
बिखेरती बता रही है- हाँ बेटा!
गमछा ओढ़कर सैलून में
बैठे हुए लोगों को देखता हूँ तो बचपन की ओर चला जाता हूँ. बूढ़े नाई अक्सर हाथ
कांपते हुए मेरे बाल अब भी काट देते है शायद बूढ़े नाई ये वही है जिन्होंने मेरे
पिताजी के बचपन में भी बाल काटने का काम किया करते थे. घर पर और गाँव के चौपाल पर
हजामत करते अक्सर यही बूढ़े लोगों को देखता हूँ. कांपते हुए हाथ में कैची और उससे हजामत
के बीच की वार्ता का आनंद वे सभी लोग अब भी वैसे ही उठाते है जो अंग्रेजी हुकूमत
के समय पहले भारतीय लोग उठाया करते रहे होंगे. सैलून नाम ही तो बदला. बचपन और नाई भी बदले. मगर
मैं तो अभी वही बूढ़े नाई के पास ही बैठा उनकी बातों में मशगूल हूँ .
कुछ वर्षों पहले
की बात है दिल्ली आया ही था. हंसराज कॉलेज से निकल कर एक दिन अकेला छात्रावास की
खोज में घूमते हुए माल रोड तक जा पहुंचा. शायद याद नहीं परन्तु वह सपनों का जुबिली
हॉल था. शायद अब वह जुबिली हॉल जैसा मेरी आँखों के सामने है वैसा यकीन नहीं होता
क्योंकि दिल्ली में आने के बाद की चकाचौध आँखे कुछ और ही दूर दृष्टि से तब जुबिली
हॉल देखी रहीं होंगी. यह छात्रावास देखते ही
लगा कि राष्ट्रपति भवन यही है. मैं सिर्फ यहाँ पहुंचकर अपने आप पर गर्व महसूस कर
रहा था. लौटते समय सड़क के पास ग्वायर हॉल की एक दूकान दिखी: सैलून. सैलून और फिर
आगे बढ़ा तो ग्वायर हॉल. नहीं पता था कि यह भी छात्रावास है लगा कि प्राईमरी किताबों में पढ़ा किसी अंग्रेज वायसराय का निवास
स्थान होगा! सोंचा, कहीं ऐसा तो नहीं... यही भारत में व्हाईट हाउस हो. लाल दीवारों
को व्हाईट कहना ज्यादा हास्यास्पद नहीं है. क्योंकि मैं वास्तविकता के सागर में
खड़ा होकर अपनी बात कहने की कोशिश कर रहा हूँ.
सैलून भी किसी ऐरे-गैरे
के लिए तो होगा ही नहीं; ऐसी बातें ही दिमाग में आती थी. बिल्डिंग देखकर बड़ी-बड़ी कल्पनाएं
करना आम बात है. ग्वायर हॉल के गेट पर लम्बे-लम्बे दो गार्ड मानों कह रहे थे कि
इजाजत नहीं है बच्चे. दूर से सपने देखना आदत तो हो ही गयी थी. सोंचा सैलून पर अगर नाई
बाल काट रहा है तो मैं भी एक दिन जरुर बाल कटवाने के लिए पूछुंगा. सपने में भी
नहीं सोंच सकता था कि कभी इस ग्वायर हॉल में मुझे रहने को मिलेगा. कल्पना जरूर कर
लिया था कि काश एक बार अन्दर देखने को मिल जाता तो.... ग्रेजुएशन खत्म होते ही मेरी कल्पना सार्थक हो
गयी और मैंने वास्तविकता में आकर अपने
पोस्ट ग्रेजुएशन के दौरान इसी ग्वायर हॉल में दो वर्ष बिताए.
रविवार का आज का
दिन शायद मुझसे कहने लगा कि आज सो लो. मैं ऐसे सोता था जैसे पूरे सप्ताह की कसर
निकाल रहा होता था. वही आदत अब भी है. आज मीठी
यादों में सुबह के नाश्ते का आनंद भी उठा रहा हूँ. वो गर्म पूड़ियाँ, जिलेबी, गर्म
दूध, आलू-चने की सब्जी कितना कुछ मुझे खिलाओगे. सहसा मैंने अपने बचपन की यादों से
पूछ ही लिया कितना ? वो मित्र जो मुझे सुबह नाश्ते के समय जगाने आते थे आज कहाँ चले
गए? आयेंगे और फिर चले जायेंगे? मेरे पास ही रह लेते. फिर से नाश्ता करने के बाद
इसी छात्रावास (गवायर हॉल) में अपने कमरे की खिड़की से धूप को निहारते और थोड़ी देर
बाद बाहर गुलाब वाटिका में बैठकर धूप सेंकते. किसी कर्मचारी से अब गिला शिकवा नहीं,
अब तो मैं वहां मेस सचिव भी नहीं तो क्यों किसी से मेरा वाद-विवाद होगा. फिर क्यों आज मेस के लोग सुबह - सुबह मेरा दरवाजा नहीं खटखटा
रहे। यही सब सोंचते-सोंचते मैं अपनी यादों को और आगे ले जाकर नाई की दुकान तक
पहुँच जाता हूँ...वही सैलून जहाँ पर... सुना है जहाँ मेरा बचपन लौट आता है. सुना
है न वही सैलून जहाँ हजामत बनवाने के लिए कभी सपने में केवल सोंचा था...सुना है
वही सैलून जहाँ फोटो टंगी है कि यहाँ पर उपकुलपति और वायसराय जैसे बड़े-बड़ो की
हजामत बनाई गयी है....
सैलून वही है
जहाँ अपने गाँव जैसे दो आदमी पान गुटका मुंह में दांतों के बीच दबाए, चबाते हुए
मुस्कुराते हुए कैची चलाते हुए नहीं थका करते है...थोड़ा थकते है तो बतियाते है
बिलकुल मेरे बस्ती में जैसे लोग बतियाते है. वही स्टाईल. दीवारें पर प्रमाणपत्र और
बूढ़े नाई की तस्वीर, आज के सैलून में टंगी अर्द्धनग्न तस्वीरों की जगह लिए हुए बहुत
अच्छे दिखते है...वही सैलून है, जहाँ पांच से छः लोग और समाचार पत्र पढ़ते हुए देखे
जाते है और गाँव से विश्व तक की सारी चर्चाएँ हो जाती है...मनोरंजन के लिए वही बी.
बी. सी. वाला रेडियों, वही मोहम्मद रफ़ी और किशोर कुमार के गाने, लता जी की आवाज ने
दूर तक आज के बदलते सैलून की ओर इशारा कर ही दिया लेकिन सबसे बड़ी बात इसने मेरे
बचपन का सैलून और मेरे और मां के बीच होती वह आनंदमयी बाल-चर्चा का वृत्तांत मेरे
सामने ही प्रकट कर दिया जैसे सैलून में लगे आईनें घूम-घूम कर मुझे मेरा बचपन लौटा
दे रहे हो. रविवार का दिन ऐसा ही खास होता है आपका भी होता ही होगा. चलिए एक नजर डालते है इसी सैलून पर...
Gwyer Hall, University of Delhi |
-प्रभात
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "पहचान तो थी - पहचाना नहीं: सन्डे की ब्लॉग-बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत- बहुत आभार
Deleteबहुत खूब.
ReplyDeleteरोज़मर्रा के दृश्य का एक ख़ूबसूरत चित्रण!!
ReplyDeleteबहुत आभार!!
Deleteबहुत-बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteउसका इतना सुंदर ख़ूबसूरत चित्रण
ReplyDeleteमन को हौसला देता है
बहुत-बहुत शुक्रिया!
Deleteयही जीवन है.
ReplyDeleteआपका आभार, आपने मेरे ब्लॉग पर विजिट किया
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