प्रस्तुत कविता के रूप में चंद लाईनों का सृजन अकस्मात ही चलते चलते हो गया...ये कविता नहीं बस मेरी तमन्ना के रूप में कहीं न कहीं मैं ही आ गया हूँ....
"चन्दा"
चाहता तो हूँ मैं छू लूँ गगन कभी कभी
छुप जाऊँगा बादलों में आओगे अगर अभी
"मैं" से हम टूट जाए ऐसा न करना कभी
दुनियाँ में कोई तुम्हारा होगा अगर अभी
तो भी तुम्हारे सिवा मेरा नहीं कोई भी
तुम ही पास आओ मेरे सपनों में कभी
चन्दा........
छुप जाऊँगा बादलों में आओगे अगर अभी
"मैं" से हम टूट जाए ऐसा न करना कभी
दुनियाँ में कोई तुम्हारा होगा अगर अभी
तो भी तुम्हारे सिवा मेरा नहीं कोई भी
तुम ही पास आओ मेरे सपनों में कभी
चन्दा........
दृष्ट कर रही इन्तजार तुम्हारे दर्शन को भी
सूरज भी भांपने लगा है आने को अभी
सभी चले जायँगे इस दुनिया से कभी न कभी
हम खे सकें तो खे ले अपनी पतवार को अभी
तुम्ही कह दो मेरे लिए कुछ शब्द अभी
मैंने तो चाहा है बस कहना नहीं कभी
चन्दा........
सूरज भी भांपने लगा है आने को अभी
सभी चले जायँगे इस दुनिया से कभी न कभी
हम खे सकें तो खे ले अपनी पतवार को अभी
तुम्ही कह दो मेरे लिए कुछ शब्द अभी
मैंने तो चाहा है बस कहना नहीं कभी
चन्दा........
प्रभात "कृष्ण"
sundar abhivyakti
ReplyDeleteविनम्र आभार!!
Deleteबेहतरीन कविता ....खुद में ही खो जाने पर यह स्थिति भी आ ही जाती है
ReplyDeleteजी आपने बिलकुल सही कहा, मैं खो गया था खुद में।
DeleteBahut sundar
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद!!
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