Tuesday, 20 September 2016

चन्दा

प्रस्तुत कविता के रूप में चंद लाईनों का सृजन अकस्मात ही चलते चलते हो गया...ये कविता नहीं बस मेरी तमन्ना के रूप में कहीं न कहीं मैं ही आ गया हूँ....

"चन्दा"

चंदा तुम्हें प्यार से देखा नहीं कभी,
मालूम नहीं मुझे कुछ हासिल हुआ है अभी
जब तक रहोगे पास हमारे भी, 
जगमगाते रहेंगे ऐसे कभी न कभी
चलने को तो मैं साँसों से चलता रहूंगा भी
तुम जुड़ जाओ मेरी साँसों से वक्त नहीं अभी 
चन्दा........

चाहता तो हूँ मैं छू लूँ गगन कभी कभी 
छुप जाऊँगा बादलों में आओगे अगर अभी
"मैं" से हम टूट जाए ऐसा न करना कभी
दुनियाँ में कोई तुम्हारा होगा अगर अभी
तो भी तुम्हारे सिवा मेरा नहीं कोई भी
तुम ही पास आओ मेरे सपनों में कभी
चन्दा........
दृष्ट कर रही इन्तजार तुम्हारे दर्शन को भी
सूरज भी भांपने लगा है आने को अभी
सभी चले जायँगे इस दुनिया से कभी न कभी
हम खे सकें तो खे ले अपनी पतवार को अभी
तुम्ही कह दो मेरे लिए कुछ शब्द अभी
मैंने तो चाहा है बस कहना नहीं कभी
चन्दा........
प्रभात "कृष्ण"

6 comments:

  1. बेहतरीन कविता ....खुद में ही खो जाने पर यह स्थिति भी आ ही जाती है

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    1. जी आपने बिलकुल सही कहा, मैं खो गया था खुद में।

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  2. Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद!!

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