बहुत दिनों से चीटियों को देख रहा हूँ
अपने कमरे की दीवारों पर,
कोने कोने में रेंगते हुए
आटा, चावल, दाल, खाने की हर वस्तु में
गैस के गर्म चूल्हे पर,
पानी के ठन्डे बोतलों पर,
मेरे बिस्तर के कई परतों के बीचोबीच
मेरी देह पर पसीनों में चलते हुए
मैं कमरे की वस्तुओं को छिपाता रहा
वो करती रही पार, हर प्रकार की बाधाओं को
जिसे मैं अपनी आँखों से देख रहा हूँ
हर दिन उनके परिश्रम और लगन की कहानी को
चीनी के डिब्बे के अंदर भी उन्हें घुमते हुए
सुना था कभी आटे से दूर भागने की बात
आजमाता, उससे पहले देख रहा हूँ
आटे के बंद पैकेट पर अंदर और बाहर
मैं थक गया रखते रखते सामानों को
दूर अपनी भी पहुँच से छत के करीब
मगर वो मुझे सिखा गयी,
असंभव कुछ भी नहीं इस धरा पर
मैंने इधर - उधर एक ही सामान को
कुछ समयांतराल का प्रयोग किया
इधर -उधर एक ही चीज़ को छुपाने की
मगर वो मेरे समय से बहुत पहले उपस्थित रही
उन चीज़ों में जिसे मैंने कभी सोंचा भी नहीं था
हारकर मैंने अंतिम प्रयोग किया
चावल के पैकेट को
जंग लगी कुर्सी के गद्दी के बीचोबीच रखकर
जंग को भी पार कर गयी,
दिखा गयी अपनी शत प्रतिशत उपस्थित
अब मेरे पास लक्षमण रेखा ही बचा था
कहने को हिंसा का यह अंतिम प्रयोग
मैंने खींच दिया 2 चार लाइनें
और वो अब दिख नहीं रही कही भी
शायद मैं हार गया ऐसा करके
जीत गयी वो छोटी लाखों चीटियां
मुझसे तैयार थी हर तरह से लड़ने की
किन्तु अहिंसक तरीके से ही....
बड़े पाठ पढ़ा गयी वो नन्ही चीटियां ।
-प्रभात
अपने कमरे की दीवारों पर,
कोने कोने में रेंगते हुए
आटा, चावल, दाल, खाने की हर वस्तु में
गैस के गर्म चूल्हे पर,
पानी के ठन्डे बोतलों पर,
मेरे बिस्तर के कई परतों के बीचोबीच
मेरी देह पर पसीनों में चलते हुए
मैं कमरे की वस्तुओं को छिपाता रहा
वो करती रही पार, हर प्रकार की बाधाओं को
जिसे मैं अपनी आँखों से देख रहा हूँ
हर दिन उनके परिश्रम और लगन की कहानी को
चीनी के डिब्बे के अंदर भी उन्हें घुमते हुए
सुना था कभी आटे से दूर भागने की बात
आजमाता, उससे पहले देख रहा हूँ
आटे के बंद पैकेट पर अंदर और बाहर
मैं थक गया रखते रखते सामानों को
दूर अपनी भी पहुँच से छत के करीब
मगर वो मुझे सिखा गयी,
असंभव कुछ भी नहीं इस धरा पर
मैंने इधर - उधर एक ही सामान को
कुछ समयांतराल का प्रयोग किया
इधर -उधर एक ही चीज़ को छुपाने की
मगर वो मेरे समय से बहुत पहले उपस्थित रही
उन चीज़ों में जिसे मैंने कभी सोंचा भी नहीं था
हारकर मैंने अंतिम प्रयोग किया
चावल के पैकेट को
जंग लगी कुर्सी के गद्दी के बीचोबीच रखकर
जंग को भी पार कर गयी,
दिखा गयी अपनी शत प्रतिशत उपस्थित
अब मेरे पास लक्षमण रेखा ही बचा था
कहने को हिंसा का यह अंतिम प्रयोग
मैंने खींच दिया 2 चार लाइनें
और वो अब दिख नहीं रही कही भी
शायद मैं हार गया ऐसा करके
जीत गयी वो छोटी लाखों चीटियां
मुझसे तैयार थी हर तरह से लड़ने की
किन्तु अहिंसक तरीके से ही....
बड़े पाठ पढ़ा गयी वो नन्ही चीटियां ।
-प्रभात
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त जी की १२९ वीं जयंती“ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteसादर आभार!
Deleteवाह, बहुत सुन्दर
ReplyDeleteआपको बहुत दिनों बाद देखकर यहाँ खुशी हुयी ....आपके टिप्पणी के लिए शुक्रिया!
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (12-09-2016) को "हिन्दी का सम्मान" (चर्चा अंक-2463) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार
Deleteहृदय की अथाह गहराई से निकले शब्द !
ReplyDeleteअथाह गहराई नहीं ये तो जो प्रत्यक्ष दिखा वही कह दिया।
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