अब फूल बनकर खिलखिला दो
आंसुओं में मुस्कुरा दो
विहान आया है
वो संध्या भी छिप गयी
वो हमारी तारा भी छिप गयी
नेह, स्नेह देकर सितारा भी छिप गयी
इस पतझड़ में नया राग सुना दो
फिर से ऋतु बसंत ला दो
अब फूल बनकर खिलखिला दो
आंसुओं में मुस्कुरा दो
विहान आया है
फिर से प्रभात आया है
राधे! प्रीत की लगन है
प्रेम में कोई भी मगन है
अब कृष्ण भी तो रंग है
भावों को ही खूबसूरत बना दो
कलकल करती नदियों की
और पर्वत की बाहों में
खुद का अहसास करा दो
अब फूल बनकर खिलखिला दो
आंसुओं में मुस्कुरा दो
विहान आया है
फिर से प्रभात आया है
-प्रभात "कृष्ण"
आंसुओं में मुस्कुरा दो
ReplyDeleteविहान आया है
फिर से प्रभात आया है
बहुत ही सुन्दर, शीतल, कोमल रचना ! वाह !
आपको देख कर खुशी हुई, मन प्रसन्न हो गया और मेरा लिखना सार्थक हो गया।
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