कहानी जारी है---
अब तक: ट्रेन तो छूट गयी मगर लखनऊ
पहुंचने का आत्मविश्वास कायम था । जबकि यह छूटने वाली ट्रेन उस रुट पर जाने के लिए
अंतिम ट्रेन थी दिल्ली से जाने के लिए। एक ट्रेन और थी मगर लखनऊ ऐसी स्पेशल उसे
केवल 11 बजे रात को जाने के
लिए दिखाया जाता है ऑनलाइन मगर ऑफलाइन कभी जाते हुए देखा नहीं । फिर भी इसमें भी
ट्राई किया ही जा सकता है ऐसा सोंचकर थोड़ा पसीना पोंछते हुए पूछताछ काउंटर की और
हम दोनों प्रस्थान करने लगते है......
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रेलवे स्टेशन पर हम
दोनों वैसे ही खड़े थे जैसे रेलवे स्टेशन पर पहुँचने के बाद अक्सर भीड़ में लोग खड़े
होते है, ठंडी के मौसम में बस एक एक पिट्ठू बैग लटकाए और जम कर गरम कपडे पहनने के
बाद गर्मी का अहसास होना स्वाभाविक था. सारे कपडे पसीने से डूब गये थे यह कोई स्वेटर की
विशेषता नहीं थी पसीने की वजह, जल्दी-जल्दी में भागम-भागी और ट्रेन पकड़ने में असफल
होने से थी . सोंच रहा था काश कोई ट्रेन हमें लखनऊ पहुंचा दे तो अच्छा होता. मैंने
अपने दोस्त से पूछा और बड़े असमंजस के साथ उत्तर भी मैंने खुद ही दे दिया कि भईयन अब क्या
होगा? दोस्त मुझे भाई भी मानता है, मुझे वह छोटे भाई की तरह लगता है. उसने कहा
भईया बड़ी मुसीबत है, एक बात बोलूं? मैंने कहा, हां... बोलो? बस से नहीं चल सकते? दोस्त
ने इतना कहा ही था...,जैसे लगा भगवान् ने हमारी बात सुन ली. एक आदमी दाढ़ी वाला उसी
भीड़ में प्रवेश किया बोला हाँ किसी को कनफर्म्ड टिकेट चाहिए....मुझे जानने की
उत्सुकता हुयी क्योंकि किसी ने कहा था कि रेलवे स्टेशन पर कुछ लोग घूमते है जो
टिकेट कन्फर्म दिला देते है परन्तु ११ बजे कौन सी ट्रेन लखनऊ जाती? यह सवाल मन में
एक संदेह के रूप में उत्पन्न हुआ. और सब लोगों से पूछते हुए हमसे वह आदमी कनफर्म्ड टिकेट के
बारे में पूछा, चाहिए ? मैं बोलता उससे पहले दोस्त ने कहा कि, नहीं! मैंने भी
दोस्त की बात में हा मिला ही दिया. एक रोचक बात जानने की उत्सुकता थी.... कि कौन से
ट्रेन में दिलाओगे? वह बूढ़ा दाढी वाला व्यक्ति कहा, भाई तुम्हे टिकेट कनफर्म्ड
मिलेगा एसी का.......मैं जानता था एक ट्रेन तो है पर टिकेट कनफर्म्ड कैसे मिलेगा जब
वेटिंग ही रेलवे के वेबसाईट पर शो नहीं कर रहा है.
परन्तु सहज ही जानने
की उत्सुकता ने उस बूढ़े दाढ़ी वाले से एक ही पंक्ति में कई सवाल कर डाले. कैसे
मिलेगा ? कौन सी ट्रेन में ? अगर न दिला सके तो ? उसने सबके जवाब सज्जन व्यक्ति की
तरह दे डाले. पहले चलो मेरे साथ आओ. मैं बात करा दूंगा ऑफिस में. फ्रॉड नहीं है जो
समझ आये दे देना लिखित में वो जितना लगेगा...पर एक सवाल मैंने किया, और आपको क्या फायदा होगा? पर उससे नहीं पूछा ? सारे उत्तर आपस में हमने गुफ्तगू करके अपने आप से निकाल लिया. अपने दोस्त से पूछा, भाई! एक बार देखे क्या कि ये कैसे टिकेट दिलाता
है....बात तो ठीक थी, जरुरत ने किन्तु या परन्तु को बोलने से थाम भी रखा था. मैंने
दोस्त से बोला भाई रात को रिस्क से ले लें क्या? क्या पता सही में दिला दे टिकेट और
अगर नहीं भी मिलता तो इस बूढ़े को हम दोनों देख लेंगे ...होगा तो चोर होगा उससे
भी निपट लेंगे....दोस्त तैयार हो गया उसने मुझे ढाढस दिलाया और कहा भईया आप बस
अपने स्मार्टफोन को कहीं अच्छे से छुपा लो और मैं अपने नोकिया १२०० को भी. पर्स भी अन्दर बाकि ......कहते
हुए उसने अपना बेल्ट चेक किया...कहा आज मारना भी पड़े तो साले को मारेंगे इसी से,
मैंने भी जोर का हामी भरते हुए बुड्ढे के साथ रेलवे स्टेशन से दफ्तर जाने के लिए तैयारी
कर ली. हम साथ थे और बुढ्ढा दाढी वाला हमें पता नहीं किस दफ्तर ले जाने के लिए आगे
आगे चल रहा था.... हम दोनों पीछे-पीछे वो आगे-आगे. रेलवे स्टेशन की भीड़ भाड़ से बाहर सड़क
की ओर से गली की ओर तक ले गया......वहां देखने में काफी भीड़ थी इतनी रात को
दुकानों की वजह से भीड़. हाँ वह भीड़ अब उस प्रकार की नहीं थी जो काउंटर पर टिकेट लेने वाली होती
है. दोस्त ने बुड्ढे दाढी वाले से पुछा भई कहाँ गोदाम/दफ्तर है वह तेजी से चले जा रहा था...मैंने कहा भई
स्टेशन का दफ्तर इतनी दूर दुकानों की भीड़ से अलग गली की ओर कैसे? उसने कहा आते जाओ
चिंता मत करो मुझे सब जानते है किसी से मेरे बारे में पूँछ लो. वह गली बच्चों की
भीड़ से भी भरा था परन्तु सारे दुकानदार उसे सच में पूछ रहे थे. अरी चाचा कहाँ अब?
मैंने सोंचा सब इधर हमारी तरफ क्यों देख रहे है क्या हम अजनबी है? गलियों में हमें
सब तो नहीं परन्तु कुछ ईमानदार और सज्जन लोगों की आंखे कुछ कहती हई दिख रही थी.. हाँ शब्द
मुह से उनके निकल नहीं पा रहे थे शायद वे विवश थे क्योंकि उनके धंधे आपस में जुड़े
हुए से लगते थे.
हमें कहते-कहते अब वह बुढ्ढा और बहुत
दूर ले गया जहाँ पर रेलवे की तरफ से बोलती वह लडकी की आवाज भी सुनायी नहीं दे रही
थी जिसमें वह बड़े प्यार से बोलती है “ ट्रेन नंबर १-०-०-०-१-२ भारत एक्सप्रेस,
गाँव से चलकर गली-गली से होते हुए शहर को पहुचने वाली अपने निर्धारित समय से बहुत
लेट हो गयी है, असुविधा के लिए खेद है” शायद यह आवाज उस गली में अगर सुनायी देती
तो अजनबी रास्ते न मालूम पड़ते, किन्तु दुर्भाग्य से हम दोनों के अलावा लोग भी थे,
हमारा साहस भी, पुलिस बूथ भी,और इतना ही नहीं वह बुड्ढा दाढी वाले से दोगुने तो हम
थे ही, परन्तु सब कुछ बेकार था क्योंकि सब दुर्भाग्य था, एक सोंच के लिए जिस अन्याय के लिए लड़ने हम रात को
निकले थे लखनऊ के लिए वह अन्याय का कारण ये बूथ, ये भीड़, ये बहादुरी सब कुछ दोषी
थे वे सब बेकार पड़े थे. हमारे दिल में आ रहा था अगर वहां दफ्तर पहुँचने के बाद कोई
बैठा हुआ गिरोह जो हमें कुछ खिला पिला दे और चाक़ू के सहारे लूट ले बस डर का अधिकतम
व्याख्या इतनी ही थी जो दिमाग में चल रही थी और अब थोड़ा ठहर जाने के लिए विवश कर
रही थी...इसलिए हम रुके, मैंने पुछा एक रेड़ी वाले से जो गोलगप्पा बेच रहा था, धीमी
आवाज में .......भाई तुम इसे जानते हो जो कनफर्म्ड टिकेट दिलाने के लिए लिवा जा
रहा है. उसने संकेत दिया और धीरे से कहा...कुछ नहीं लौट जाओ तुम लोग, मैंने पीछे
देखा अब भी देर नहीं हुयी थी बहुत दूर तो नहीं थे पर पास भी नहीं.....बड़ी तेजी से मैंने बुड्ढे से बोला? अरे पगले रुक हम जा रहे है पता लग गया मुझे तू क्या है? किसने कहा?... बुढ्ढे ने
बड़ा भावुक होने का नाटक किया और कहने लगा विश्वास नहीं बड़ी जोर जबरदस्ती करने की
कोशिश के साथ मनाने में लगा रहा ...हमने कहा, नहीं चाहिए तेरा टिकेट, लौट जा...वह
गालिया देने लगा और हम दबे पाँव उलटे रेलवे स्टेशन के पास आ गये ...देखा वह भी
पीछे-पीछे हमारी ओर आ गया रात के ११ बजे अभी लेट नहीं हुए थे....अब मित्र के उत्तर
की तरफ ध्यान गया बस अभी होगी....यही एक उपाय है भले ही ट्रेन की तुलना में अधिक
किराया लगे और उतनी सुविधा न मिले, समय अधिक लगे पर सुबह डी. जी. पी. ऑफिस पहुँच
तो जायेंगे.
अतः हम हिम्मत हार
करके बस अड्डे का पता और बस का ठिकाना पूछने के लिए फिर से बैग में हाथ डालकर अपने
अपने मोबाईल निकालने लगे, ताकि अपने एक दो और मित्र से बस के बारे में जानकारी
प्राप्त कर ले और मोबाईल को जेब में पुनः रख ले. मित्रों से बस के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी फ़ोन पर मिल गयी, अब चैन मिला जाकर कि चलो बस पकड़
लेते है..और नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन से पुनः मेट्रो मार्ग से आनंद विहार बस अड्डे
की ओर प्रस्थान करने लगते है......अरे भईयन! अच्छा हुआ जो हम आ गये, पुलिस होते तब
जरुर जाते अभी तो पुलिस के यहाँ हमें जाना है, चलो तेजी से आओ नहीं तो मेट्रो भी
छूट जायेगी, मैंने दोस्त से कहा....शायद अंतिम मेट्रो हमारे लिए इंतजार में थी और हम मेट्रो में सवार
हो गये. बस अड्डे की ओर पहुँच कर रात को बहुत भयावह दृश्य दिख रहा था दिल्ली में
भी चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा था और भीड़ वही थी जो रेलवे स्टेशन की थी.......पानी बेचते
हुए लोग और गोलगप्पे लगी रेड़ी की दुकाने थी . मेट्रो से बाहर निकलते ही एक युवक से
मुलाक़ात हुयी...कहाँ जाना है, उसने पूछा! मैंने कहा,..कहीं नहीं? मैंने दोस्त से
कहा कुछ बताना नहीं है.... सीधे चलते जाना है....चले जा रहे थे तेजी से हम और वह युवक
हमारे पीछे- पीछे चला आ रहा था ...............................आगे कहानी और भी
है. शेष अगली बार. साभार- प्रभात “कृष्ण”
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "१४ अगस्त और खुफिया कांग्रेस रेडियो “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। सादर आभार
Deleteबहुत सुन्दर ।
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। धन्यवाद
Deleteस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। सादर आभार
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