Sunday, 14 August 2016

जो शहीद हुए है!

जो शहीद हुए है ........
(70 वे स्वतंत्रता दिवस पर विशेष)


           जो शहीद हुए है उनकी जरा याद करो कुर्बानी....हर कोई २६ जनवरी और १५ अगस्त के दिन इस गीत को सुन ही लेता है....इस गीत को सुनते ही देश प्रेम की जो भावना जाग्रत होती है उसका बखान हर कोई अपनी ही तरह से कर सकता है. हम जब स्कूल में थे तो यह गीत दूर से ही सुनने पर ऐसी भावना का संचार कर जाता था जिससे हमारे कदम तेजी से आगे बढ़ने लगते थे और साथ ही साथ दिल की धडकनें, साँसे सबकी अनुभूति आँखों में आंसुओं के रूप में आ जाती थी और इस जोश में हमारे बोल “मेरा नाम आजाद” की तरह हो जाते थे. मैं “थे” का प्रयोग इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि ये सब इस गीत का प्रभाव है और गीत हम कभी कभार सुनते है.
पहले मेरे दादा जी बीबीसी उसी प्रकार से सुनते रहते थे जैसे आजकल लोग दिल्ली का एफ.एम.. मैं भी उनके साथ बैठता था तो न सुनना चाहते हुए भी बातें कानों के खुले रहने की वजह से अन्दर पहुँच  ही जाती थी. मैं बात कर रहा हूँ अपने बचपन की. बचपन में हमारे स्कूलों में हफ्ते भर पहले से स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस की तैयारियां शुरू हो जाती थी. हम भी अपने भाषण और गीत को लेकर इतने उत्साहित होते देखे जा सकते थे कि जैसे लालकिले से मैं ही बोलने वाला हूँ. तब ये गीत कभी नहीं सुनने को मिला था  “तुझे अपना बनाने की कसम खाई है”. क्योंकि हमारे घर में टीवी भी नहीं था और था बस रेडियो वह भी दादा जी के हाथों में बी. बी. सी.. सारी आजादी की कल्पनाये राष्ट्र कवियों के लिखे गीत वाली पुस्तक से और अपने सरकारी पाठ्य पुस्तक से कई पाठ जो आजाद, बोस, भगत, गांधी जी आदि पर लिखी होती थी उन्ही से पढ़कर आजादी कर लेते थे और तब तो अपनी मर्जी के मुताबिक कोई राष्ट्रीय गीत चाहकर भी सुन नहीं सकते थे क्योकि कोई ऐसा साधन उपलब्ध नहीं होता था.
          उन दिनों मुझे तो ठीक से पता भी नहीं था आजादी मतलब क्या होता था फिर भी आजादी के दिन को लेकर उत्साह और भाषण सुनाने और सुनने की ऐसी हलचल होती थी जिसका सम्पूर्ण गाथा अब लिख पाना मुश्किल है. ऐसा इसलिए था क्योंकि देश प्रेम का माहौल उन दिनों देखने को मिलता था. जिज्ञासा थी कुछ सीखने की और सीखते थे भी. दिल्ली में नवाबों के पतंग उड़ाने की प्रथा का ज्ञान बिलकुल नहीं था. लाल किले पर पीएम के झंडा फहराने के स्थान के भीड़ को लेकर भी कोई ज्ञान नहीं था बस थोड़ी बहुत कल्पनाएँ कर लेता था. मिठाईयां स्कूलों में जो मिलती थी वह तो एक इनाम सा मिलता दिखता था जब हमारे घरों में गुलाब जामुन बनाये जाते थे तो वह भी अपने स्कूल के लिए अपने स्कूल में लड्डू, बताशे, गुलाब जामुन से स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस कार्यक्रम का अंत किया जाता था. कभी किसी कवी को सुना नहीं था. कवी हम स्वयं होते थे. गीतकार सारे अध्यापक. हमारे स्कूल में कुछ ग्रामीण लड़के और लड़कियां तो जब गाती थी तो जैसे “जो शहीद हुआ था” गाने पर भावना उत्पन्न होती थे वैसे ही भावना उत्पन्न होने लगती थी यह गीत वह स्वयं लिखा करते थे, स्वयं ही गाते थे और बजाते थे... ढोल नहीं...ढोल की जगह मेज होता था और डंडे की जगह उनका हाथ. बचपन की बातें जितनी की जाए कम ही है बस कहने का मतलब इतना है कि कम ज्ञान और कम समर्थ होने के बाद भी जो देश प्रेम की भावना थी वह शायद अब खो गयी है.
          अब जिन्दगी मानों काजोल के प्रेम पर आधारित हो ही नहीं अब प्रेम तो सनी लीयोन वाली ज्यादा देखने को मिलती है. देश प्रेम की बात क्या ही कर सकते है. सब कुछ बदल गया है, बीबीसी वाली रेडियो, महाभारत, रामायण, जय हनुमान, नया सवेरा, मैं दिल्ली हूँ, श्रीकृष्ण, दूरदर्शन  वाली टीवी, वह गाँव से बाहर 2 रूपये मिनट वाला पीसीओ, वह अंतर्देशीय कार्ड वाला डाकखाना, उस बरगद के पेड़ के नीचे गाँव में लगे चौपाल, वो बैलों वाले खेत, अनाजों वाले खलिहान. जिन्दगी जीना ही बदल गया है अब आकाशवाणी व्हाट्स एप पर होती है. नहीं सोंच रहे कि हम कितने सेल्फिश होते जा रहे, देश की प्रगति और दूसरों की प्रगति का किसे ध्यान. नौकरी करने के पीछे लोग इस कदर भाग रहे है कि जिन्दगी भर की कमाई तो सरकारी फॉर्म भरने में पहले ही लगा दे रहे कुछ पैसे इंटरव्यू में रिश्वत के रूप में कुछ ट्रान्सफर के लिए. इस नौकरी को करने के बाद सारी वसूली करने में जिन्दगी मौत तक पहुँच कर कभी लौट आती है तो कभी मौत ही के पास चली जाती है. आजाद भारत में हम आजाद कहाँ है यह सोंचे तो हम लोग बहुत पीछे चले जायेंगे और अगर हम न सोंचे तो बिलकुल पीछे चले जायेंगे.
          हम बस अंग्रेजों से ही तो आजाद है, आतंकवाद ने जकड़ ही रखा है कभी नक्सल कभी आई.एस .आई तो पकड़ रखा है. हम पहले अंग्रेजों के अत्याचार से परेशान थे अब हम अपनी सरकार और पुलिस के अत्याचार से परेशान है. कभी हमें कोई भावुक करके पीएम और सीएम की कुर्सी पा जाता है तो कभी हमें कोई लूटकर और मार कर मंत्री बन जाता है. कोई करोडपति मात्र धर्म पाखण्ड पर बन जाता है तो कोई अपने संस्कृति को दुबारा उजागर करने के नाम पर कुछ सिखाने के बहाने अरबपति भी बन जाता है. कुल मिलाकर स्वार्थी मानसिकता ने तो जीवन को इतना आसान बना दिया है. कि उन्हें रास्ते से हटाने में किसी को कोई दिक्कत नहीं अगर वे किसी तरह से बाधक बनते नजर आते है. लोग एक दूसरे को ब्लेम करके बन्दर बाँट करने की राजनीति करते नजर आ रहे है. किसी को नहीं दिख रहा कि देश के आजादी के मायने क्या है. भगत सिंह के सपनों का क्या हुआ?
          आज अखबारों में कुछ लिखने वाले लोग और न्यूज चैनल में एंकर बने लोग कौन है यह सोंचने की जरुरत है मात्र पैसों के लिए लोग कभी कभी कुछ भी लिखने और कहने के लिए तैयार हो जाते है. आज गरीब और अमीर के बीच की खाई के बारे में कौन सोंचता है, गरीब वास्तव में उपेक्षा का शिकार हो रखा है इसलिए हमारे नेता इनकी राजनीति कर अपना वोट भरने में सफल रहे है. धर्म/ संप्रदाय पर राजनीति कर के मंदिर/मस्जिद बनवाने के नाम पर तो पार्टियाँ चलती आयी है..कोई अगर सच कहने की कोशिश करता है तो उसे आतंकवाद करार देकर फांसी का तख्ता तक दिखाने में कोई कसार नहीं छोडी जाती है. गुनाह करने वाले कौन लोग है? अगर सोंचा जाए तो उपेक्षित लोग है, वंचित लोग है, वही गरीब है जो फूटपाथ पर सोते हुए कुचल दिया जाता है. जेल में पड़े लोगों की बात करना ही बेकार है, मैं हैरान हूँ आज जेल में पड़े लोगों में से ज्यादातर बेक़सूर है और वे अपनी जिन्दगी कठघरे में इसलिए गुजार रहे है क्योंकि वे पहुँच वाले नहीं है. क्या हम आजाद है?
           यह अपमान होगा उन देश भक्तों का जो शहीद हुए है अगर हम कह दे कि “हम कहाँ आजाद है” ऐसी मानसिकताओं वाले लोग हमारे आस पास बहुत है लेकिन वे ये नहीं सोंचते कि उन देश भक्तों के सपनों का आजाद भारत कैसा रहा होगा. क्यों हम एक दूसरे को प्रताड़ित करने के लिए अपना द्दिमाग लगाते है. इसलिए क्योंकि आज हम सच में अंग्रेज ही बन गये है. हमारे खान पान और रहन सहन के स्टाईल ही ऐसे हो गये है कि हम पशुओं से भी बुरे बनकर रह गये है..हम उसे तुरंत स्वीकार कर लेते है जिसमें हमारा फायदा हो दूसरों का नुकसान हो, हम उसे कतई भी स्वीकार नहीं करते जिसमें हम सबका फायदा हो. और अगर ऐसा करेंगे तभी तो हमारे देश की प्रगति होगी.
           हम नहीं चाहते हम अपने आपको बदले, यह ठीक है क्योंकि हम वास्तव में प्रगति कर रहे है लेकिन यह प्रगति किस मायने में है अपने आपको बंधन मुक्त करने के लिए ? नहीं अगर आप सोंच रहे है कि हम केवल प्रगति कर रहे है तो गलत है हम प्रगति एक दूसरे से सामंजस्य बिठा कर नहीं कर रहे है, हमें अपने स्वार्थ के सिवा कुछ नहीं दिख रहा अगर ऐसा दिखे तो हमारा भारत कैसा होगा मैं बताता हूँ..अम्बानी का घर झोपडी होगा, मोदी का पहनावा केवल खादी का होगा, अफसरों की कुर्सी के पीछे सीसीटीवी होगी, नेताओं के जुबानों की कद्र होगी, आधे पुलिस अधिकारी जेल में होंगे, कोयल..मैना...गिद्ध....बुलबुल....गौरैया सब दिल्ली के लाल किले पर घूम रहे होंगे, पीओके अपना होगा, प्रधानमंत्री से हम भी मिल सकेंगे, हम गाँव की ओर लौटेंगे और सरकारी नौकरी चाहने वाले लोगों की संख्या शून्य होगी, सिन्धु घाटी की सभ्यता दिखेगी और यमुना में खिले कमल की ओर सब रुख करेंगे, पीएम की कुर्सी कोई लेना ही नहीं चाहेंगा, सीएम और कलेक्टर कोई नहीं बनना चाहेगा क्योंकि तब लोग तभी बनना चाहेंगे जब उन्हें अपने कर्तव्यों का बोध होगा.
          हाँ मैंने जो भी कुछ कहा सब असंभव दिख रहा है क्योंकि हम भी नहीं चाहते लेकिन कब तक नहीं चाहेंगे, हमारा भी कहीं न कहीं अंत होगा.....इसलिए आज स्वतंत्रता दिवस के इस पावन अवसर पर हम इस दिशा में अपने सोंच को बढ़ाने का प्रयास करें जिधर हम अपने देश की प्रगति कर सकने में मदद कर सके उस ओर कतई नहीं जिधर केवल अपना स्वार्थ ही सिद्ध हो. तब तो इस आजाद की भावना की कद्र हो सकेगी और कह सकेंगे गर्व से कि हम आजाद है....
- साभार 
प्रभात “कृष्ण”

         

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-08-2016) को "एक गुलाम आजाद-एक आजाद गुलाम" (चर्चा अंक-2436) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    ७० वें स्वतन्त्रता दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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