"फोन का
अलार्म"
फ़ोन पर प्रणीत का नाम देखकर बड़े जल्दी में मैंने फोन उठा लिया, हाँ दोस्त नमस्ते कैसे हो? मैंने अपने अंदाज में ८
साल पुराने मित्र से यह पुछा. हाँ मैं ठीक हूँ, बहुत प्रेम
से उसने कहा. अच्छा पुनीत मुझे शुक्रवार को दिल्ली आना है, मेरी
फ्लाईट सुबह 5 बजे पहुंचेगी. फिर तुम दिल्ली में रह रहे हो
और तुम्हारे पास ही रुक जाऊंगा क्योंकि मुझे उसी रात फिर फ्लाईट पकड़ कर लखनऊ कवि
सम्मेलन में जाना है. मैंने खुशी से हाँ में उत्तर दिया और खुशी भी हुयी कि अपने
प्रणीत दोस्त से मुलाकात भी हो जायेगी और फिर
शुक्रवार मेरे ऑफिस की छुट्टी भी है, तो मैं उसे पूरा समय दे सकूँगा.
फोन आने के ही दिन
बुद्धवार को ही मैंने उसके आने से पहले ही अपने कमरे की अच्छे से सफाई की और सभी
अस्त व्यस्त पड़े सामानों को अच्छे से व्यवस्थित किया. वृहस्पतिवार को ऑफिस से आने
के बाद थका था और ऑफिस का कुछ काम भी बचा था उसे करने के चक्कर में मैं अब तक अपने
दोस्त के आवागमन का ख्याल मानों दिल से निकाल चूका था. मैं 2 बजे रात तक ऑफिस का काम निपटाने के चक्कर में जगा रहा. अगले दिन यानी
शुक्रवार को जब मेरी नींद खुली, तो एकाएक मेरा ध्यान सामने
टंगी दीवाल घड़ी की ओर गया. मैंने देखा ११ बज रहे थे और दोपहर की धूप कमरे की खिड़की
से प्रवेश कर रही थी. मुझे ११ बजे का समय देखकर तनिक भी विश्वास न हुआ, लगा किसी सपने में हूँ फिर उठकर अपनी आँखों को और थोड़ा घड़ी के पास ले जाकर
देखा तो मुझे विश्वास ही करना पड़ा.
मेरे
फ़ोन का अलार्म तो अक्सर आज के दिन 9 बजे बज भी जाता
है और बंद भी, पता नहीं चलता था परन्तु मैं फोन की स्क्रीन
भी दबा कर अलार्म को ऑफ़ करना चाहा तो देखा मित्र प्रणीत के 24 मिस्ड कॉल और एक घर से कॉल. खैर अब तक तो पूरी कहानी का बोध हो चुका था..समझ
से बाहर था कि अब उसे कैसे अपनी मजबूरी बताऊँ और वो मुझ पर विश्वास कर सके कि
मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया................................
प्रभात"कृष्ण"
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