Thursday 22 September 2016

संवेदनहीनता के शिकार

संवेदनहीनता के शिकार

     मानव जिज्ञासा तो अनंत है, हम सब सबसे उच्च तकनीकों जैसे स्मार्टफोन से लैस भी है जो हमारी जिज्ञासाओं को शांत करने में मदद करते है । जैसे-जैसे हम बुलंदियों को छूते जा रहे है वैसे ही वैसे हम दिन प्रतिदिन घटनाओं के प्रति असंवेदनशील भी होते दिखाई दे रहे है । यह संवेदनहीनता और एक प्रकार का अनदेखापन हमारे लिए इतना खतरनाक है, कि हम कभी भी सांप सीढ़ी की तरह इतने नीचे जा सकते है कि वहां से फिर आगे बढ़ना ही मुश्किल हो जायेगा या हो सकता है हम नीचे जाने की बजाय अपना अस्तित्व भी खो दें । मानवीय संवेदनाओं की झलक ही न देखनी को मिलेगी और हम पशुओं की श्रेणी से भी नीचे आ जायेंगे. शायद इसलिए क्योंकि पशु फिर भी मानव से कहीं न कहीं समझदार ही लगते है.

      वह समय हम भूलते जा रहे है, जब हमारी नींद स्वतः ही समय से सुबह बिना अलार्म लगाये ही खुल जाया करती थी। आज हम अलार्म लगा कर भी नहीं उठ पाते । हमारे आस पास चेतावनी देने के लिए इतने अधिक अलार्म हो गए है, कि हम बहुत सारी अलार्म को सुनना ही नहीं पसंद करते । आज अनावश्यक और आवश्यक अलार्म में भेद करने की बजाय हम उसे अनसुना करना ज्यादा अच्छा समझने लगे हैं । इस पर मुझे प्रतिदिन की एक मेट्रो की कहानी ध्यान आती है जिसे सुबह और शाम मैं अपनी आँखों से देखता रहता हूँ । दिल्ली मेट्रो में लोग जब विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन से क़ुतुब मीनार जाने वाली मेट्रो में बैठते है तो उसमें कुछ लोग हुड्डा सिटी सेंटर जो कि क़ुतुब मीनार से आगे का स्टेशन है, उससे या उससे भी आगे जाने वाले लोग होते है । जो गाड़ी क़ुतुब मीनार जाती है वह क़ुतुब मीनार से ही वापिस विश्वविद्यालय की ओर मुड़ जाती है । क़ुतुब मीनार पहुँचने से कई स्टेशन पहले से ही मेट्रो गाड़ी में स्पीकर से यह जोर-जोर सुनायी देने लगता है कि यह गाड़ी क़ुतुब मीनार तक ही जायेगी, कृपया आगे जाने वाले यात्री पहले ही उतर जाएँ तथा अगली गाड़ी के आने का इंतजार करें । मैं क़ुतुब मीनार के पहले ही मालवीय नगर स्टेशन पर इस सीट पाने की लालसा से बैठ जाता हूँ ताकि क़ुतुब मीनार जाकर मेट्रो खाली हो जाए और मैं उसी मेट्रो में बैठ कर वापिस विश्वविद्यालय अपने घर की ओर पहुच जाऊं । अक्सर जब मेट्रो अपने अंतिम स्टेशन क़ुतुब मीनार पहुँच कर वहां से मुड़ती है, तो मेरा ध्यान हर प्रकार के राजधानी में रह रहे लोगों की ओर आकर्षित होता है उनमें से कुछ लोग बड़े प्रेम से ईयर फोन लगाये गाना सुनते-सुनते मेरे साथ ही विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन की ओर वापसी करने लगते है और दिशा बदलने के बाद भी उन्हें कुछ भी अपने गलत दिशा में यात्रा के ऊपर संदेह नहीं होता । यकीन नहीं होता पढ़े लिखे लोग भी जब वापिस आँख, नाक और कान खोले कई-कई स्टेशन पीछे राजीव चौक तक का सफ़र दुबारा कर लेते है और उनके कान तक गाड़ी में लगे स्पीकर की आवाज नहीं पहुच पाती क्या वे मूक बधिर है ? हाँ वे मूक बधिर है लेकिन प्राकृतिक रूप से उन्हें कोई बीमारी नहीं है फिर भी हम एक प्रकार से अचेत और बीमार है क्योंकि हम अब अपने अन्दर  चेतना का संचार नहीं करना चाहते और न ही अपने संवेदी अंगों का भी सही इस्तेमाल करना चाहते । इसलिए हम अचेत बने रहते है ।  लगता है कहीं लैमार्क के कथनानुसार, हम अपने कुछ अंगों का अधिक प्रयोग न करने से भविष्य में हम सदा के लिए इसे खो दे, क्योंकि हम अपने संवेदी अंगों को निष्क्रिय रखकर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे है ।
    हाँ उपरोक्त बातें आपको मजाक ही लगेगी, लेकिन सत्यता के प्रमाण के तौर पर आजकल आप इसे हर जगह देखते है, पिछले कुछ दिनों की एक घटना को कौन होगा, जो सुना नहीं होगा- दाना माझी को साइकिल पर लाश ले जाते हुए और हममें से कुछ लोगों ने इस तरह की कितनी घटनाएं अपने आँखों के सामने देखा भी होगा ।  लेकिन सत्यता यही है कि इन घटनाओं को हम अनदेखा ही करते रहे है ।  हम कितने भी आदर्श सिनेमा की बात कर लें, हम कितने भी अच्छे लेखो को पढ़ ले, लेकिन जब भी कोई इस तरह की घटनाएँ आती है तो हमारे आँख, नाक और कान सब कुछ लकवाग्रस्त से हो जाते है ।  अगर हैं भी तो उसका प्रयोग हम ठीक उल्टी तरह काम बिगाड़ने में करने लगे है ।  टेलीविजन में हम ऐसी तमाम सामाजिक और घिनौनी घटनाओं को देख कर बस कानून से फांसी देने की बात कर देते है ।  ऐसे प्रतिक्रिया हम तब देते है जब हमें घोंट-घोंट कर किसी एक घटना को दिखा दिया जाता है हममें से कई लोग विडियो को आगे पीछे कई बार देख-देख कर उसके लिए अपने अन्दर इतना आक्रोश पैदा कर लेते है कि उस क्षण हम उस आदमी की हत्या भी कर सकते है ।  लेकिन यह हत्या करने का विचार बहुत घातक है कि इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हम प्रिंट मीडिया में खबरों के छपे होने पर उसी घटना से पहले अनभिज्ञ होते है और क्योंकि ऐसा विचार टेलीविजन पर वीडिओ देख कर पनपता है और उसके कुछ दिनों बाद ही ऐसे सामने घट रही घटनाओं पर हम चुप्पी साधे बेसुध से बन जाते है । यह सब हमारी एक प्रकार की असंवेदनशीलता का प्रमाण है ।  जब कोई महिला किसी पुरुष की प्रताड़ना का शिकार हमारे आँखों के सामने होती है तो हम कान में ईयर फोन लगा कर गाने सुनने में मस्त रहते है । कुछ ऐसे लोग भी होते है जब उनसे  कभी कभार कोई मजाक कर देता है तो वे सामने वाले व्यक्ति को गाली दे देते है है और इतना ही नहीं उस मजाक का उत्तर देने के लिए उसकी कुटाई किसी हथियार से भी कर देने में भी हिचकते नहीं है । आजकल हर कोई गर्मजोशी से कहीं भी लड़ने के लिए आँख और दाँत निकाल कर बात करता है । शर्मनाक से शर्मनाक कहानी हम अपनी आँखों के सामने से होते देखते है लेकिन पता नहीं कौन से भीष्म की प्रतिज्ञा का शिकार हुए हम उससे अलग थलग दिखते है । कभी भी हम अपने आपको ऐसी घटनाओं के प्रति संवेदनशीलता नहीं दिखाते ।

        आपने अभी हाल ही में बुराड़ी में हुए मर्डर के बारे में सुना होगा और पढ़ा भी होगा, हाँ टेलीविजन में अगर उसका सी.सी.टी.वी. में कैद वीडिओ भी देखा होगा तो आप उससे आहत तो हुए ही होंगे मैं भी आहत हुआ । मन में आया कि तुरंत ऐसे शख्स को फांसी मिलनी चाहिए और आपने भी यही कहा होगा ।  लेकिन हम वही लोग है कानून की बात दोहराकर थोड़ी दिन शोर मचाकर चुप हो जाते है । हमारे आस पास जब लड़की के ऊपर लगातार दिन में लोगों के सामने 27 से अधिक बार चाकुओं से हमला हो रहा होता है तो हम एक व्यक्ति से डर कर भाग जाते है और कार में बैठे गाना सुनते हुए हमारी कुछ जनता ऐसे गुजरती है जैसे हम उससे कितने अनजान है । हम घटनाओं को होते देख अनजान तो बने रहना ही चाहते है साथ ही साथ हम फांसी मिलने की दुहाई भी करते है । हम कब तक ऐसे आँख, नाक, कान बंद किये असंवेदनशील बने रहेंगे और हर बार फांसी की मांग करके चुप हो जाएंगे. आखिर हम किसी भी घटना को होते देख आगे क्यों नहीं आना चाहते?

      इस प्रकार की हजारों घटनाये हमारे संवेदनहीन बने रहने की वजह से ही घटती रहती है, कई सारे आतंकी घटनाओं से लेकर रेलवे क्रॉसिंग में मरे लोगों की घटनाये इसी तरह के चीजों के प्रति संवेदनहीनता के शिकार बनने की वजह से घटित होते है । हम न जाने कितने लोगों को गलत काम करते हुए देखते है, पर हम खुद से मतलब रखना चाहते है इसलिए भी हम असंवेदनशील हो जाते है और अपने आस पास होने वाली घटनाओं से अनजान भी बने रहते है । क्या हम अलग-अलग जगह बज रहे अलार्मों को ऐसे ही अनदेखा करते रहेंगे? हाँ करते रहेंगे जब तक हम केवल सोशल मीडिया में प्रचार प्रसार और दिखावा करेंगे, कि हम कितने जागरूक नागरिक है । इन सबके बजाय हमारी पुलिस भी कहीं पर थोड़ी दोषी है और शायद इसलिए भी हम असंवेदन शील बने रहते है क्योंकि हम अपने आपको कानून के कटघरे में नहीं डालना चाहते क्योंकि ऐसा होता आया है प्रत्यक्ष रूप से मौजूद कोई गवाह पुलिस प्रताड़ना का भी शिकार होता है. लेकिन कभी हम अगर ऐसी जघन्य अपराधों को होते देख अगर आगे आयेंगे तो हम कम से कम अपने घर और समाज में पुरस्कृत भी किये जायेंगे. सरकार को भी इस दिशा में पुरस्कृत करने के लिए कुछ उचित कदम उठाने की ओर ध्यान देना चाहिए जैसा कि कुछ राज्य सरकारे करती भी आ रही है ।  यहाँ बात संवेदनहीनता की ही है हम समाज में अगर दूसरे के लिए चैतन्य नहीं होंगे तो दूसरे लोग हमारे लिए क्यों होंगे ।  अगर हम वर्तमान मीडिया के तकनीकों के इस्तेमाल के साथ अपने आप को वास्तव में समाज के प्रति जागरूक बना लें तो शायद हम मानवीय संवेदनाओं को आहत होते नहीं सुन पायेंगे और मानव आचरण और मर्यादा का आदर्श रूप देखने को मिलता रहेगा ।

प्रभात “कृष्ण ”

Blog: अपनी मंजिल और आपकी तलाश 

8 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-09-2016) को "जागो मोहन प्यारे" (चर्चा अंक-2475) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. जब तक इंसान अपने को छोड़ के नहीं सोचेगा ये संवेदनहीनता बनी रह्र्गी ...

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    1. सहमत हूँ आप से, और संवेदनहीनता के सुझाव के लिए आभार!

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  3. सही जवाब ... बहुत गंभीर बात है

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    1. धन्यवाद पढ़ने के लिए।

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