मुझसे जो माँगा मैंने दिया
ये सोंचकर तो नहीं कि मिलेगा
और आपने लिया ये सोंचकर
कि कभी लौटाना नहीं मुझे
कितनी बेकार है ये दुनिया मेरी
मैंने माँगा भी कुछ एक बार अगर
मुझे मिला मगर बदले में उस चीज के
जिसे मैंने भुला दिया था
और उसके साथ ही एक सच
मगर कड़वी बात, जिसे मैं जानता तो था
कि तुम विकसित मानव ही हो और
तुम केवल कुछ देते हो नोट के बदले में
तुमसे सही है वह तुम्हारा नादान बच्चा
जो केवल एक हंसी का रिश्ता जानता है
और खुशी से कुछ मांगने पर
अपने आपको ही गोंद में रख देता है किसी गैर
के.
-प्रभात
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-06-2015) को "गंगा के लिए अब कोई भगीरथ नहीं" (चर्चा अंक-1999) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत-बहुत आभार!
Deleteवाह, बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया
Deleteबहुत खूब।
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया
Deleteजी हां,यही एक रिश्ता अछूता है जहां कोई परत नहीं चढी इंसानियत की.
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया
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