पुलिया के पास से गुजरती उस रेल को मैंने एक दिन देखा तो था..उसी
रेल के एक डब्बे की तरह तुम दौड़ती हुयी बेहद करीब पहुंच गई थी नहीं पता था...इतनी
जल्दी तुम आकर मुझे गले लगा लोगी। पास में बहते हुए नदी की धारा के तीव्र वेग के
साथ मेरे रूह को छूती हुई सरयू का पानी शायद तुम्हारे अहसांसों में लिपटी हुयी थी।
सरसों के लहलहाते खेतों में दूर तलक एक सन्नाटा पसरा हुआ था...सूरज भी डूब रहा
था....इस डूबते सूरज को देखकर तनिक एहसास तो हुआ कहीं हो न हो मेरे अंदर का प्रभात
भी काफी कम समय में निराश हो गया था...
कहाँ पता था कि दौड़ती रेल की पटरियों पर मेरा और तुम्हारा इस तरह
आकर स्नेह से मिलना शायद जिंदगी की पटकथा का ऐतिहासिक क्षण होगा। थोड़ी देर में
अँधेरा जब अपना असर दिखाने लगा था...तो हमें डर तो लगा, लेकिन कुछ जगमगाते जुगनुओं के प्रकाश में मुझे यह एहसास हो गया था कि
प्रभात अपना असर जल्द ही उसी जगह पर आलोकित सूरज के साथ ही दिखाने लग जाएगा...आ
जाओ रागिनी हम एक दूसरे को इस अन्धकार में भी देख लेंगे...हाथों से छुए बगैर केवल
सुनकर तुम्हारे दिल की धड़कन और रेल की पटरी पर आवाज।
-प्रभात
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