Sunday 24 January 2016

जो आसरा कुछ दिया था


हो गयी है बाग़ वो खाली जहाँ कभी हरियाली थी
पेड़ों पर झूला और उन पर नन्हों की खुशहाली थी
फसल कटी नहीं जब तलक नियमित रखवाली थी
कटने के बाद लोकगीत और खेतों में दीवाली थी
पानी भरे खेतों को देखे अरसा बीत गया लगता है
हीरा-मोती बैलों की कथा सुने वर्षों बीता लगता है
चना-मटर के खेतों में जाने के सपने बस आते हैं
अरहर के खेतों में छुपा-छुपी खेलों में खो जाते हैं
सरसों के लहलहाते फूलों पर बैठी तितलियाँ कहाँ
एकादशी के गन्ने और गन्नों से पीटते सूप गए कहाँ
हो गयी है लुप्त दीवाली, खलिहानों में उजियाली थी
आँगन में चटाई और धूप सेंकते दूध की प्याली थी
तालाब के किनारे जाने पर कुछ सूखा सा लगता है
कुओं की बारी आने पर कुछ विलुप्त हुआ लगता है
नदियों के कोलाहल में ध्वनि प्रदूषण हुआ लगता है 
घर के आँगन का पानी मेढक बिन सूना सा लगता है
हो गयी है तब्दील शाम बिनतारे आकाश के बाहों  में
मिट गयी है इन्द्रधनुष की लाईनें मौसम के बदलाव में
हो गयी है अमर कहानी जहाँ से बदलाव शुरू हुआ था
ठहर गयी है प्रकृति की वाणी, जो आसरा कुछ दिया था
     -प्रभात   


  


3 comments:

  1. बहुत ही प्‍यारी रचना की प्रस्‍तुति। अच्‍छी रचना के लिए आपका आभार।

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    Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया
      सादर...!

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