Sunday 24 January 2016

स्वतंत्र विचार

स्वतंत्र विचार

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          इतने दिन हो गए न कोई लेख न ही कोई संवाद. ..ऐसा लगता है विचारों की दिशा ही बदल गयी हो परन्तु ऐसा न होने का एक महत्वपूर्ण कारण मेरे परतंत्र होने से है मैं हूँ तो स्वतंत्र परन्तु केवल 26 जनवरी को और 15 अगस्त! वहां जब मेरे हाथों में एक माईक होती थी और “जय हिन्द जय भारत” के स्वतंत्र नारे लगते थे. स्वतंत्रता तो उसे कहते है जब कोई मजबूरियां मेरे सामने नहीं आती अपितु आती है तो बस अकेले. जब कोई सवाल मेरे पास आये तो उसका स्वतंत्र जवाब आपके पास जाए. जब कोई तत्त्व मुझसे भिड़े उसका जवाब मेरी स्वतंत्रता से ही मिले. इंसान को जब स्वतंत्रता मिल जाती है तो वह जिम्मेदारियों से लद जाता है और अगर ऐसा नही होता तो वह कुछ अनर्थ कर लेता है. इन सबके पीछे एक उद्देश्य होता है वह नाता, रिश्ता, परिवार, समाज, संस्कृति और बहुत सी अनकहे या कहे विचार.
          
         मेरे अपने विचारों में स्वतंत्रता की परिभाषा बन-बन कर बदलती जाती है जैसे तरंगों का बन-बन कर लुप्त होना. स्वतंत्र विचार मेरे मन कभी-कभी जब आते है तो मैं उनके पीछे मकसद की और भागने लग जाता हूँ और अंततः ज्ञात होता है कि यह भी एक परतंत्र विचारधारा है. इसका मतलब कुछ खास नही है.... विचार आते है तो वह मेरे स्वयं के ही होते है वह मेरे अपने ऊपर निर्भर करता है कि कब और कैसे किन विचारों में खोया जाये...अर्थात हम इसे स्वतंत्र ही मानेंगे.
कभी-कभी जब मेरे विचार किसी फल की प्राप्ति के लिए कोई संघर्ष कराते है अगर उस संघर्ष से कुछ मिल जाता है तो वह विचार स्वतंत्र मालुम पड़ता है और वही जब संघर्ष कुछ गवां देता है तो वह विचार परतंत्र लगने लगता है. हकीकत यह है कि हम हमेशा ही विचारों की उलझनों में परतंत्र ही होते है क्योंकि वहां “मैं” की जगह “हम” का समावेश हो जाता है. सदैव ही ऐसा होता है किसी चीज़ की प्राप्ति के लिए मकसद हमारा प्राप्ति होता है चाहे वह स्वतंत्र हो या परतंत्र.

          जब किसी की शादी हो जाती है तो उसे बंधन में बंधना होता है वह रिश्तों का, जीवन भर साथ रहने का हो सकता है परन्तु वहां यह बंधन अवश्य होता है जिससे हमारी स्वंत्रता का ह्रास होने लगता है. और एक दिन सारे स्वतंत्र विचार परतंत्र विचार बनकर सामने आने लगते है. यह तो हम जानते है परन्तु यह भी हकीकत नहीं है. स्वतंत्र विचार तो उसी दिन से परतंत्र या पराये हो जाते है जब माँ की गोंद में जन्म के बाद आ जाते है और जब तक बड़े नहीं हो जाते तब तक पारिवारिक रिश्तों में बंधे हुए विचारों से अवगत हुआ करते है और दूसरों को अवगत कराया करते है. फिर भी कुदरत की देन से एक नए वातावरण में प्रवेश करते ही फिर से विचार स्वतंत्र होने लगते है परन्तु इसमें कुछ समय लग जाता है. वास्तव में अब भी विचार स्वतंत्र नही है व भी किसी वातावरण में बंधे हुए प्रतीत होते है परन्तु अनुकूलतम स्थिति में सचमुच हम स्वतंत्रता की ओर प्रवेश करने लगते है.

          जब ऐसी अनुकूलतम स्थिति आती है तो हमें अपने आप पर इतना भरोसा हो जाता है कि हमारे अपने पूर्व के विचार जो स्वतंत्र प्रतीत हो रहे थे अब वे परतंत्र महसूस होने लगते है और हम ऐसी सभी विचारों का विरोध कर बैठते है परन्तु इससे अपने रिश्ते, समाज और परिवार को आघात भी पहुँचने लगता है. जब ऐसी स्थिति आ जाती है तो हम फिर एक ऐसे बंधन में बंध जाते है जहाँ हमारी स्वतंत्रता छिनने लगती है परन्तु यह हमारे ऊपर होता है कि हम अपनी स्वतंत्रता को कैसे बनाये रखे.

          समग्र रूप से अब भी जब हम एक बंधन से निकलते है वह है बचपन तो स्वतंत्र है परन्तु शादी के बाद एक ऐसा बंधन जिसमें फिर से हम परतंत्र महसूस करते है इससे भी निकल सकते है वह हमारे ऊपर ही निर्भर करता है कि कैसे. मेरा मतलब किसी का त्याग करना नहीं केवल अपने कुछ परतंत्र विचारों का त्याग करने से है.

         चूंकि हम समाज में रहते है इसलिए भी हम स्वतंत्र नहीं है वहां तो हम पूरे ब्रह्माण्ड से बंधे हुए है ऐसा तब महसूस होगा जब कभी हमारी दृष्टि उस और जायेगी. पहले पहल बंधन समाज होता है गाँव-शहर और देश फिर संसार. ऐसा बंधन हमारी जायज और नाजायज दोनों प्रकार की जरूरतों के कारण होता है. और असली परतंत्रता का स्वरुप यही मिलता है. जिससे निकलना शायद असंभव है या हमारी सोंच से परे है. जब ऐसी स्थिति का हमें अहसास होता है तब हमें भगवान् की ओर मुड़ना पड़ता है और तभी बुध्द, कबीर, सूर, ईशा, पैगम्बर और बहुत सारे स्वतंत्र विचारों का प्रवेश होने लगता है. तभी वन गमन, योग, ध्यान, मुनि, साधु, सन्यासी जैसे स्वतंत्र उपायों का अहसास होने लगता है और न जाने क्यों हम त्याग की ओर  चले जाते है जहाँ से हमारे संघर्षरत जीवन का एक नया अध्याय शुरू हो जाता है और उलझनों उलझनों में इन्हें ही भगवान मान लिया जाता है.

           अब सोंचता हूँ तो लगता है कि अंतिम सत्य तो स्वतंत्रता ही है हर कोई इसीलिये इसकी तरफ मुड़ता है और न जाने कहाँ कहाँ किस किस ओर चला जाता है कुछ अपना विचारों का यह अध्याय जल्दी ही पूरा कर लेते है कुछ थोड़ी देर में........

           मिलता जुलता लेख विचारों की दिशा..............(2)......इसे भी जरुर पढ़े. साभार 
-“प्रभात”      

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