Monday, 11 January 2016

कि विपत्ति धीरज का रुख मोड़ कर लद नही जाती

कि विपत्ति धीरज का रुख मोड़ कर लद नही जाती
खुले आसमान में तूफ़ान कभी असर नहीं दिखाती
गगनचुम्बी इमारतो को हवाए जब चाहे तब गिरा दे
-गूगल साभार 
मगर बिना सीखे कोई परीक्षा सफल हो नहीं पाती

कि मधुमक्खियाँ भी आजकल शत्रु को पहचानती है
हाथ लगाने पर आक्रामक हो ढूंढ ढूंढ कर मारती है
संभल कर बैठे रहो अगर तनिक कुछ देर ही सही
देखो कैसे फिर डरा-डरा कर वापिस चली जाती है  

कि कोई ढिबरी अँधेरे में जब चाहे तब प्रकाश कर दें
शीतल-शीतल सी हवा में थोड़ी गर्म अहसास भर दे
रात भर में ही जलकर दूसरे दिन नया तेल मांगती है
मगर सूरज की गर्मी और अहसास कोई और कैसे दे         

मेरी प्रतिभा है अगर तो मुझसे मंजिल दूर नहीं होगा
वक्त पर न ही सही बिछुड़कर कभी मिल ही जायेगा
बिना बाधा के कोई मंजिल हासिल हो जाये तो क्या
कहा वह आनंद और प्रतिभा का उपयोग हो पायेगा

नईया रोकने के लिए एक जलकुम्भी ही काफी है
जंगल साफ़ करने के लिए बस चिंगारी ही काफी है
कोई अद्भुत धरा पर काम हुआ है तो कही पर अगर
असंभव होता है संभव केवल एक विवेक काफी है  


-प्रभात 

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