हो गयी है बाग़ वो खाली जहाँ कभी हरियाली थी
पेड़ों पर झूला और उन पर
नन्हों की खुशहाली थी
फसल कटी नहीं जब तलक नियमित
रखवाली थी
कटने के बाद लोकगीत और
खेतों में दीवाली थी
पानी भरे खेतों को देखे
अरसा बीत गया लगता है
हीरा-मोती बैलों की कथा सुने वर्षों बीता लगता है
चना-मटर के खेतों में
जाने के सपने बस आते हैं
अरहर के खेतों में
छुपा-छुपी खेलों में खो जाते हैं
सरसों के लहलहाते
फूलों पर बैठी तितलियाँ कहाँ
एकादशी के गन्ने और
गन्नों से पीटते सूप गए कहाँ
हो गयी है लुप्त दीवाली,
खलिहानों में उजियाली थी
आँगन में चटाई और धूप
सेंकते दूध की प्याली थी
तालाब के किनारे जाने
पर कुछ सूखा सा लगता है
कुओं की बारी आने पर कुछ विलुप्त हुआ लगता है
कुओं की बारी आने पर कुछ विलुप्त हुआ लगता है
नदियों के कोलाहल में
ध्वनि प्रदूषण हुआ लगता है
घर के आँगन का पानी
मेढक बिन सूना सा लगता है
हो गयी है तब्दील शाम
बिनतारे आकाश के बाहों में
मिट गयी है
इन्द्रधनुष की लाईनें मौसम के बदलाव में
हो गयी है अमर कहानी
जहाँ से बदलाव शुरू हुआ था
ठहर गयी है प्रकृति
की वाणी, जो आसरा कुछ दिया था
-प्रभात
बहुत ही प्यारी रचना की प्रस्तुति। अच्छी रचना के लिए आपका आभार।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया
Deleteसादर...!
आपका आभार।
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